मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

कथा में मां को बचाने का संकल्प

जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य ने किया खान नदी को प्रदूषण मुक्त करने का आह्वान

खान नदी का दर्द सोमवार को गणेशपुरी कॉलोनी के भगवद् भक्तों की आंखों में झलका, जब यहां आयोजित रामकथा में नदियों की महत्ता पर जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्यजी ने प्रकाश डाला। जब उन्हें शहर में कभी कल-कल बहने वाली खान नदी की दुर्दशा बताई गई, तो उन्होंने सैकड़ों भक्तों से नदी को प्रदूषण मुक्त कर पुनर्जीवित करने का संकल्प दिलाया।

उन्होंने कहा, नदियां मां के बराबर होती है। यह दु:ख की बात है कि आज देशभर की कई नदियां प्रदूषित हो चुकी हैं। छोटी नदियों की स्थिति ज्यादा बुरी है। नदियां प्राकृतिक धरोहर हैं। नदियों की महिमा का उल्लेख हमारे गं्रथों में हैं। हम ठान लें तो कुछ भी असंभव नहीं है। कथा में राम जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया गया। इस दौरान स्वामीजी ने स्वरचित भजनों की प्रस्तुति भी दी।

14 भाषाओं के जानकार हैं स्वामीजी
स्वामी रामभद्राचार्य 14 भाषाओं के जानकार हैं। उन्हें वेद, पुराण, उपनिषद, भागवत, मानस आदि कंठस्थ हैं। दो माह की उम्र में नेत्र ज्योति खोने के बाद संपूर्णानंद विश्वविद्यालय वाराणसी से पोस्टग्रेजुएट, पीएचडी एवं डी.लिट. उपाधियां प्राप्त की। उन्होंने 85 ग्रंथों की रचना की है। उनके द्वारा स्थापित विकलांग विश्वविद्यालय में विकलांगों को आवास, भोजन, शिक्षण के साथ रोजगारमूलक प्रशिक्षण दिया जाता है।

यह सभी की जिम्मेदारी
कथा में शामिल आशीष ने कहा कि यह व्यक्तिगत मसला नहीं है। इसके लिए सभी को मिलकर बड़े पैमाने पर काम करने की जरूरत है। मैं भी इसके लिए सक्रिय प्रयास करूंगा।

सदस्यता अभियान
खजराना निवासी रुक्मणि यादव ने कहा कि खान के संरक्षण के लिए सदस्यता अभियान चलाना चाहिए। इच्छुक लोगों को जोड़कर खान के लिए हर स्तर पर प्रयास किए जाने चाहिए। 
मंगलवार , १४ फरवरी २०१२, इंदौर , पत्रिका

आस्था आज भी जिंदा

नदी मां  किनारे पर हो रहा मुंडन संस्कार
अर्पण-तर्पण का विशेष महत्व बरकरार  

इंदौर, सिटी रिपोर्टर। शहर की नदी मां, खान नदी का अभी भी इंदौर का पुरातन महत्व है। आस्था आज भी शहरवासियों के दिलो-दिमाग में है। शहरवासियों ने इसे अपने मां का दर्जा दिया था, जहां-जहां से खान नदी गुजरी है वहां मंदिर बनाए और अभी भी उनमें पूजा होती है। अब इस मां को भूल चुके हो लेकिन अर्पण-तर्पण के लिए आज भी खान नदी के किनारे का महत्व बरकरार है। रामबाग व पारसी मोहल्ला में खान नदी के किनारे ही मुंडन, अर्पण-तर्पण कार्य होते हैं। 
छावनी इलाके के पारसी मोहल्ले में भी नदी बहती थी। यहां के शिव मंदिर के पास के घाट पर लोग तर्पण, मुंडन करवाते हैं। इस घाट का ऐतिहासिक महत्व है। वर्ष १८४९ में इसे एक समाजसेवी ने परिजन की स्मृति में बनवाया था। घाट पर रविवार को भी एक परिवार मुंडन संस्कार करवा रहा था। कुछ ऐसा ही महत्व रामबाग में भी खान नदी के किनारे का है। यहां महाराष्ट्रीय समाज द्वारा अर्पण-तर्पण के कार्य किए जाते हैं। खासकर यहां दसवां रखने का महत्व है। यह परंपरा सालों से चली जा रही है। 

प्यास बुझाती थी खान
पारसी मोहल्ले में नदी के किनारे बने शिव मंदिर के सेवादार देवकी नंदन रायकवार बताते हैं, कभी शहर की ह्रïदय रेखा मानी जाने वाली खान नदी में बच्चे तैरते थे। इसके स्वच्छ पानी से शहर की प्यास बुझती थी। हर कार्य में पहले खान नदी का पूजन होता था लेकिन आबादी के बोझ के साथ स्वच्छता और बेहतर सीवरेज प्रबंधन को नजअंदाज कर दिया गया। हालत यह है पारसी मोहल्ले का जो घाट लोगों के स्नान का एकमात्र स्थान था और आज यहीं बेहद गंदगी और बदबू का साम्राज्य है। इस शहर की जनता भले ही इस नदी से सीधे तौर पर जुड़ी न हो लेकिन आज भी इसके प्रति गहरी आस्था मौजूद है। जरूरत केवल इस आस्था को आवाज देने की है ताकि इसकी स्थिति सुधर सकें और विकास के पथ पर बढ़ते इस इंदौर में अपना अस्तित्व खोती खान नदी को बचाने के लिए एक आवाज बुलंद हो सके।

एकजुट कोशिश करे समाज
जैन मुनि भूतबलीसागर ने किया आह्वान
इंदौर. जैन मुनि भूतबलिसागरजी ने समाजजन से शहर की खान नदी के जीर्णोद्धार की अपील की है। उन्होंने कहा कि पंच तत्व में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति का महत्व है। इसमें भी जल सबसे महत्वपूर्ण है। नदियों को प्रदूषण मुक्त कर जल को नहीं सहेजा तो कल से कोई आशा करना व्यर्थ है।
परदेशीपुरा मंदिर के लिए सुगनीदेवी कॉलेज परिसर में हो रहे जिनबिंब पंचकल्याणक महोत्सव पंचकल्याणक में आए मुनि भूतबलिसागरजी ने कहा कि सरकार व जनता को मिलकर इंदौर की खान के लिए संयुक्त प्रयास करना चाहिए। सरकार और शहर के लोग इसे आगे बढ़कर सहेजते है तो यह शहर को सुंदरता और पर्यावरण का संरक्षण करेंगी। आज हमारे सामने कई उदाहरण है जहां प्राकृतिक स्तोत्र का संरक्षण किया गया ïवह गांव-शहर में खुशहाली आई है। इस दिशा में जाग्रत हों, क्योंकि इस सदी में जाग्रत नहीं हुए तो अगली पीढ़ी के सामने विषम परिस्थितियों होगी। उन्होंने सुझाव दिया है कि भारत की सभी नदियों को जोड़कर विद्युत, सिंचाई सहित विभिन्न समस्आओं का समाधान किया जा सकता है। 

पार्षद भी बोले, बचाएंगे नदी मां को
कबूतर खाना, नार्थ तोड़ा, साउथ तोड़ा के ड्रेनेज ने खान को नाला बना दिया। बचपन खान के किनारे खेलकर बीता। अब दु:ख होता है। इसके लिए मिलकर कोशिश करेंगे।  
अंसाफ अंसारी, पार्षद, वार्ड १२  

वार्ड क्षेत्र की बस्तियों का ड्रेनेज नाले के जरिए खान नदी में मिलता है। सीवर लाइन से भी ड्रेनेज की समस्या का समाधान नहीं होगा। मजबूत इच्छाशक्ति के साथ प्रशासन, निगम सहित शहर के प्रत्येक नागरिक को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। 
सुनीता शुक्ला, पार्षद, वार्ड १३  

मेरे वार्ड क्षेत्र का थोड़ा बहुत डे्रनेज खान में मिलता होगा। पत्रिका की खबर के बाद अब पूरी रिपोर्ट तैयार की जाएगी। खान को नदी के रूप में फिर से परिवर्तित करना जरूरी है। 
अर्चना चितले, पार्षद, वार्ड १४ 

सिकंदराबाद नाला खान को दूषित करता है। तीन हजार आबादी का ड्रेनेज नदी में पहुंच रहा है। सीवर लाइन से कुछ हद तक समस्या हल हो जाएगी। मैंने तो खान नदी के लिए योजना तक बना ली है।
 शेख मोहम्मद असलम, वार्ड १६  

मरीमाता वाले नाले में वार्ड का ड्रेनेज मिलता है। सीवर लाइन तो आधे ही वार्ड में  है। खान को बचाने सीवर प्रोजेक्ट को गंभीरता से लेना होगा।
राजेंद्र रघुवंशी, पार्षद, वार्ड १७

स्कीम ५१ का पूरा ड्रेनेज नाले के जरिए खान में पहुंच रहा है। इसके लिए हम ही जिम्मेदार हैं। अब सभी को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी।
अश्विनी शुक्ल, पार्षद, वार्ड १८  

१३ फ़रवरी २०१२ , सोमवार, पत्रिका, इंदौर

खान को भी चाहिए सींचेवाल

[मिसाल] 
पंजाब की १६० किमी लंबी काली बेई को जिंदा कर चुके संत सींचेवाल
इंदौर, सिटी रिपोर्टर। क्या इंदौर की नदी मां, खान नदी, को जिंदा करने के लिए सिख संत सींचेवाल जैसे संत मिल पाएंगे? क्या किसी प्रेरणा देने वाले संत के पद चिह्नों पर चलकर हम भी अपनी नदी को साफ और स्वच्छ पानी से जिंद कर पाएंगे?
'उम्मीदों की खानÓ महाअभियान में ये प्रश्न उठना लाजिम हो रहे हैं। दरअसल, नदी को जिंदा करने की मुहिम में संत सींचेवाल एक बड़ा चमत्कार कर चुके हैं। उन्होंने पंजाब के होशियारपुर जिले की मुकेरियां तहसील के गांव घनोआ के पास से व्यास नदी से निकल कर बहने वाली १६० किमी लंबी 'काली बेईÓ नदी को जिंदा कर दिया है। काली बेई होशियारपुर, जालंधार व कपूरथला जिलों को पार करती है, लेकिन इसमें इतनी मिट्टी जमा हो गई थी कि नदी मर ही गई। नदी में किनारे के कस्बों-नगरों और सैकड़ों गांवों का गंदा पानी गिरता था। किनारों पर भी गंदगी के ढेर थे। जल कुंभी ने पानी को ढक लिया था। कई जगह पर तो किनारे के लोगों ने नदी के पाट पर कब्जा कर खेती शुरू कर दी थी।

मंथन बैठक में उपजे सींचेवाल
नदी के किनारे गुरु नानकदेव को अध्यात्म बोध हुआ था व नदी खत्म हो थी। इससे बुद्धिजीवी चिंतित थे। जालंधर में 15 जुलाई 2000 को हुई एक बैठक में लोगों ने काली बेई की दुर्दशा पर चिंता जताई। बैठक में उपस्थित सड़क वाले बाबा के नाम से क्षेत्र में मशहूर संत बलबीर सींचेवाल ने नदी को वापस लाने का बीड़ा उठाया। अगले दिन बाबाजी शिष्य मंडली के साथ नदी साफ करने उतरे। उन्होंने नदी की सतह पर पड़ी जलकुंभी की परत को हाथों से साफ करना शुरू किया तो फिर उनके शिष्य भी जुटे। 
विरोध में जुटे थे नेता 
सुल्तानपुर लोधी में काली बेई के किनारे जब टेंट डालकर ये बाबा के शिष्य जुटे तो वहां के कुछ राजनैतिक दल के लोगों ने विरोध किया और ताकत भी दिखाई। पर लोग डिगे नहीं। 

जनभागीदारी की मिसाल
इतने बड़े काम के लिए रुपए की व्यवस्था कैसे हुई होगी, यह सवाल उठना स्वभाविक है। इसमें जनता का सहयोग रहा। विदेशों में रहने वाले सिखों ने भारी मदद दी। इंग्लैण्ड में बसे शमीन्द्र सिंह धालीवाल ने मदद में एक जे.सी.बी. मशीन दे दी, फिर तो मदद के हाथ बढ़ते ही चले गए। लोग अपने सामान जैसे गेंती, फावड़े, तसले आदि स्वयं लेकर आते हैं। जो नहीं ला पाते उन्हें दिए जाते हैं। गांव-गांव से लोग आकर निष्काम भाव से सेवा देते रहे। कोई बड़ा हल्ला भी नहीं। आस्था जरूर बड़ी दिखती थी।  
 
इस रणनीति पर चला काम
 सींचेवाल गांव वालों को बुलाने संदेश भेजते, गांव वाले आते तो समझाते। सिखों की कार सेवा वाली पद्धति ही यहां चली। हजारों ने साथ में काम किया। नदी साफ होती गई।
 बाबा स्वयं लगातार काम में लगे रहे। उनके बदन पर फफोले पड़ गए। पर कभी उनकी महानता के वे आड़े नहीं आए। 
 नदी के रास्ते को निकाला तो फिर उस पर घाटों का निर्माण चालू हुआ। कहीं किसी इंजीनियर की जरूरत नहीं पड़ी। बाबा जमीन पर उंगली से लकीरें खींच देते और लोग मिलकर उन्हें बना डालते। 
 नदी किनारे नीम-पीपल के पेड़ लगाए। हरसिंगार, रात की रानी व दूसरे खुशबू वाले पौधे भी लगाए। फलदार वृक्ष भी लगाए। इससे सुंदरता के साथ नदी किनारे फल व छाया का इंतजाम भी हो गया। इससे भविष्य में नदी पर कब्जा करने की संभावना भी शून्य हो जाती है।
 राज्य सरकार ने नौ करोड़ से वाटर ट्रीटमेंट प्लांट बनाया, लेकिन वह काम का नहीं था।
 बाबा से जिला प्रशासन ने कुछ सोच समझ कर रास्ता निकालने के लिए तीन दिन का समय लिया, पर फिर भी कुछ नहीं
हुआ। तब सुल्तानफर लोधी में बाबा की ओर से वाटर ट्रीटमेंट प्लांट का पानी नदी में गिरने से रोक दिया गया।
 योजना यह बनी कि ट्रीटमेंट प्लांट से पानी की निकासी खेतों में कर दी जाए। जिसके लिए शुरुआत में आठ किलोमीटर लंबी सीमेंट पाईप लाईन बिछाई गई और काम चालू हो गया। 

धर्म-कर्म पर 8 अरब और नदी मां पर?
 किशोर कोडवानी, सामाजिक कार्यकर्ता

मां के आंचल में शिशु मल-मूत्र करता है, तो मां वात्सल्य से उसे साफ करती है। बच्चे के हर अवगुण को ममत्व के वशीभूत होकर आंचल में समेट लेती है। यही बच्चे बड़े होकर वसीयत की होड़ में मां का आंचल मैला करने लगते हैं, फिर भी मां दुआ देती है। दुष्कर्मों का फल बच्चे जरूर भोगते हैं। मेरी मां बचपन में मुहावरा सुनाती थी, जियरे कयों दंगम-दंगा, मोये पहुंचायें गौरा गंगा। (जीते-जी करो वाद-विवाद फिर क्यों पहुंचाते हो मरने के बाद अस्थियों को गंगा।)
उज्जैन- ओंकारेश्वर तीर्थ यात्रियों की पड़ाव स्थली कान्ह (खान) सरस्वती का किनारा पंढरीनाथ क्षेत्र रहा है। सन 1818 में मंदसौर संधि के कारण होलकरों ने इंदौर को राजधानी बनाया और मात्र 184 वर्षों में इंदौर विकास के मामले में देश का 14वां बड़ा शहर बन गया। इस दौड़ में 49 हजार 227 हेक्टेयर क्षेत्र की 781 हेक्टेयर नदी-तालाबों की जमीन पर हमने अपनी बुरी नजर डालकर नदी मां का आंचल मैला ढोने की मालगाड़ी बना दिया है। फिर हम पूत या कपूत हैं? क्या 265 वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैली मात्र 210 किमी लंबी 11 नदियां, जो कि हमारी जमीन का एक प्रतिशत हिस्सा है, को हम साफ नहीं रख सकते? 650 करोड़ रुपए के सीवरेज प्रोजेक्ट में नदियों में ड्रेनेज का बहाव रोकने का कोई प्रावधान क्यों नहीं किया गया? 
शहर में सालाना 800 करोड़ रुपए धार्मिक आयोजनों पर खर्च करने वाले नदियों को नहीं बचा सकते? शहर में समाजकार्य पढ़ रहे 3000 व इंजीनियरिंग पढ़ रहे 5000 विद्यार्थी मिलकर मां के आंचल का मैला नहीं धो सकते। 40 लाख हाथ नदी मां की ममता के आंचल की चुनरी शहर पर नहीं ओढ़ा सकते। संवेदनशील जिलाधीश आगे बढ़ें। धर्मसभाओं में जननी, जन्मभूमि, गऊ माता, वृक्ष संस्कार सुनकर भी नहीं सीखे तो कब समझेंगे? 94 प्रतिशत भूजल दूषित कर पी रहे हैं। मौत से नहीं डर रहे हैं क्या विनाश से समझेंगे?  


१२ फ़रवरी २०१२ , रविवार , पत्रिका इंदौर 

खान के लिए तैयार था यूनेस्को

अनदेखी  
ठंडे बस्ते में गया प्रस्ताव
यूनेस्को हेरिटेज नेटवर्क ने भोपाल में काम करने में ही दिखाई रजामंदी
इंदौर का प्रोजेक्ट अटका

खान नदी को संरक्षित करने के लिए यूनेस्को हेरिटेज नेटवर्क राजी हो गया था, लेकिन प्रशासनिक अनदेखी के कारण यह प्रोजेक्ट ठंडे बस्ते में चला गया। उधर, भोपाल के नेता-अफसर होशियार निकले, उन्होंने यूनेस्को को अपने शहर को सुधारने के लिए तैयार कर लिया है। बस करार होते ही काम शुरू हो जाएगा। हालांकि, अभी भी संभावनाएं खत्म नहीं हुई हैं।
जनवरी १० में धरोहरों की सुरक्षा करते हुए अधोसरंचना विकास के लिए यूनेस्को हेरिटेज नेटवर्क का एक दल प्रदेश के दौरे पर आया था। दल के सदस्यों नेे इंदौर समेत भोपाल, ग्वालियर, उज्जैन, महेश्वर, बुरहानपुर व जबलपुर को काम के लिए चुना था। दल ने इंदौर का दौरा भी किया था। अफसोस, जब प्रोजेक्ट पर प्रदेश में हलचल रही थी, तब इंदौर में महापौर कृष्णमुरारी मोघे ने कुर्सी संभाली ही थी। अफसरों ने भी ध्यान नहीं दिया और बात हाथ से निकल सी गई। वहीं, भोपाल की मदद के लिए नगरीय प्रशासन विभाग के मंत्री बाबूलाल गौर मौजूद थे। उन्होंने १४ जनवरी २०१० को यूनेस्को टीम के सदस्य व फ्रांस के रेन्न शहर के उपमहापौर जोन ईव्स शौपे, फ्रांस हेरिटेज शहर नेटवर्क के जोन मिशेल गैल्ली, संसदीय सहायक सारा डोश, यूनेस्को एक्सपर्ट सविता राजे, भोपाल की महापौर कृष्णा गौर और नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग के तत्कालीन प्रमुख सचिव राघव चन्द्रा के साथ एक बैठक रखी और माहौल बनना शुरू हो गया।

फ्रांसीसी दल भी आया
भोपाल में फ्रांस सरकार ने पिछले साल सितंबर में दल भेजा। उसमें अरबन प्लानिंग सिटी ऑफ रेन्न के प्रबंध निदेशक क्रिस्टीन ली पेटिट व फ्रांस दूतावास के सांस्कृतिक प्रतिनिधि बेंजामिन गेस्टीन शामिल थे। दल ने भोपाल के साथ महेश्वर की धरोहरों के संरक्षण में रुचि दिखाई।

नदी के कारण चयन
फ्रांस सरकार ने इंडियन हेरीटेज सिटीज नेटवर्क के तहत ऐसे शहरों को तकनीकी मदद देने की रूपरेखा तैयार की है, जो किसी नदी के किनारे बसी हैं। इंदौर के चयन का आधार खान थी। यूनेस्को इंदौर को अपने दायरे में लेता है तो खान नदी के बहाव को जिंदा करने व किनारे की धरोहरों को संरक्षित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय तकनीकी सहयोग इंदौर को मिलने लगेगा।

हर संभावना देखेंगे
 यूनेस्को का दल मेरे कार्यकाल में नहीं आया है। मैं देखता हूं मामले में क्या संभावनाएं हैं?
कृष्णमुरारी मोघे, महापौर, इंदौर

 यूनेस्को की टीम मेरे कार्यकाल के आखिर में आई थी और उन्होंने खान नदी, राजबाड़ा, छत्रियां, लालबाग सभी स्थानों का दौरा भी किया था। वे चाहते थे कि इंदौर की धरोहरों को सहेजा जाए। हमने इस पर काम किया भी था, लेकिन बाद में वे भोपाल के प्रोजेक्ट में लग गए।
डॉ. उमा शशि शर्मा, पूर्व महापौर

 यूनेस्को की भोपाल नगर निगम के साथ चर्चा चल रही है, लेकिन अभी तक यह करार नहीं हुआ है। यह तय नहीं है कि किन शर्तों पर करार होगा? 
एसपीएस परिहार, प्रमुख सचिव, नगरीय प्रशासन


सीईपीआरडी के विशेषज्ञों की टीम तैयार
इंदौर. शहर की नदी मां खान नदी को जिंदा करने के लिए पर्यावरण संरक्षण अनुसंधान एवं विकास केंद्र (सीईपीआरडी) ने एक टीम तैयार कर ली है। टीम में आर्किटेक्ट, सिविल इंजीनियर, पूर्व सिटी प्लानर जैसे विशेषज्ञ शामिल हैं। सीईपीआरडी के अध्यक्ष आनंद मोहन माथुर ने बताया, पर्यावरण की सुरक्षा के लिए सीईपीआरडी १६ वर्ष से सक्रिय है। पत्रिका के महाअभियान 'उम्मीदों की खानÓ के लिए संगठन हर तरह की मदद के लिए तैयार है।

महाभियान के लिए घोषित टीम
 एमएस बिल्लौरे, पूर्व सचिव व प्रमुख अभियंता, जल संसाधन विभाग
 वीके जैन, पूर्व अध्यक्ष, मप्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड
 आरएस गट्टानी, पूर्व निदेशक, नगर व ग्राम निवेश विभाग
 अशोक सोजतिया, पूर्व चीफ इंजीनियर, सिंचाई विभाग
 नरेंद्र सुराणा, रिटायर्ड सिटी प्लानर, नगर निगम इंदौर
 डॉ. संदीप नारूलकर, सिविल विभाग, एसजीएसआईटीएस
 अजीत सिंह नारंग, पूर्व चीफ इंजीनियर, पीडब्ल्यूडी
 एसके साहनी, प्रोफेसर, एक्रोपोलिस इंस्टिट्यूट
ऑफ टेक्नोलॉजी
 एससी जैन, विभागाध्यक्ष, सिविल इंजीनियरिंग, अरविंदो इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी
 अतुल सेठ, वरिष्ठ इंजीनियर एवं आर्किटेक्ट
 मनीष सोनी, आर्किटेक्ट

११ फ़रवरी २०१२ , पत्रिका , इंदौर 
 १२ फ़रवरी २०१२ पत्रिका इंदौर

मां के लिए करेंगे पदयात्रा

संकल्प 
श्रीसद्गुरु ग्रामीण विकास एवं अनुसंधान परिषद ने की घोषणा                                                          लोगों को देंगे खान नदी के महत्व की जानकारी
नदी से नाला बन गई खान नदी को जिंदा करने के लिए श्रीसद्गुरु ग्रामीण विकास व अनुसंधान परिषद ने आगे आते हुए घोषणा की कि नदी के किनारे से पदयात्रा की जाएगी ताकि लोगों को इसके महत्व की जानकारी मिल सके। परिषद के सदस्यों ने संकल्प लिया कि खान को स्वच्छ, निर्मल व पवित्र बनाकर ही दम लेंगे। जान देकर भी खान की रक्षा करेंगे।

परिषद के अध्यक्ष विकास चौधरी ने कहा है, नदी मां होती है और इसे बचाना हम सभी की जिम्मेदारी है। अभी परिषद हर वर्ष १३ किमी पदयात्रा करके क्षिप्रा को जिंदा करने के लिए गांवों में जागृति लाते हैं, अब खान नदी के लिए यह काम किया जाएगा।

सिंहस्थ को फलदायी बनाने के लिए भी जरूरी
उन्होंने कहा है कि खान आगे चलकर क्षिप्रा में मिलती है और बेटों की अनदेखी के कारण वहां अपने साथ गंदगी ले जाती है। इससे वहां के लोगों की सेहत खराब होती है।  चूंकि, खान नदी क्षिप्रा में जाकर मिलती है, इसलिए वहां भी गंदगी है। वर्ष २०१६ में सिंहस्थ होने वाला है और उस वक्त तक खान के बहाव हो साफ किया जाना चाहिए ताकि सिंहस्थ का स्नान फलदायी बन सके। परिषद ने मांग की है कि राज्य सरकार अभी क्षिप्रा पुनर्जीवन पर १५.२८ करोड़ रुपए खर्च कर रही है। इस प्रोजेक्ट को विस्तार देकर खान नदी को भी इससे जोडऩा चाहिए। 
ये दस सुझाव दिए
१. खान नदी के किनारे के जल स्त्रोतों को जागृत किया जाए। 
2. नदी के किनारे में कृषि, उद्योग और पशुधन के लिए जलप्रबंधन का सांचा तैयार किया जाए।
३. किनारे पर वृहद पौधारोपण किया जाए, जो पेड़ हैं उन्हें संरक्षित करें।
४. जल मंथन सभाएं आयोजित की जाए ताकि जागरूकता आए।
५. उद्गम स्थल के आसपास एक तीर्थ सरोवर का निर्माण किया जाए।
६. नदी संवाद या नदी उत्सव करें।
७. पुराने स्टॉप डेमों की मरम्मत की जाए ताकि  भराव शुरू हो सके।
८. उद्गम से क्षिप्रा में विलय तक नदी रक्षकों की नियुक्ति की जाए।
९. कॉरपोरेट कंपनियों से इस अभियान को जोड़ा जाए।  कॉरपोरेट घराने इसके लिए राशि उपलब्ध कराएं।
१०. हर वार्ड में हर माह इस मसले पर एक बैठक अवश्य हो।

पार्षदों को होने लगा मां के दर्द का आभास
खान नदी के लिए इंदौर के पार्षद भी अब एक राय हो रहे हैं। उनके दिल में भी अब मां के दर्द की आहट पहुंच गई है। वे साथ आकर नदी को जिंदा करने तत्पर हो रहे हैं। पत्रिका ने उनसे दो सवाल पूछे थे। इनके जवाब में उन्होंने कांधा से कांधा मिलाकर आगे बढऩे की बात कही है।
ये थे दो सवाल 
पहला - आपके इलाके में खान नदी का कौन सा हिस्सा है? 
दूसरा - नदी के लिए आपका क्या सुझाव है?


फातिमा खान (वार्ड 2)
चंदननगर-सिरपुर वाला नाला, जो अंतिम बिंदु पर खान नदी में मिलता है।
जेएनएनयूआरएम प्रोजेक्ट में सीवरेज लाइन का कार्य तेजी से हो जाए तो नाले को डे्रनेज से मुक्त किया जा सकता है।

अरूणा शर्मा (वार्ड 3)
कालानी नगर का ड्रेनेज पीलियाखाल नाले के रास्ते खान में पहुंच रहा है।
1 लीटर पेट्रोल पर 1 रूपया निगम वसूले तो बजट समस्या हल होगी। शहरवासी अभियान से सीधे जुड़ेंगे।

गोपाल मालू (वार्ड 4)
चंद्रशेखर व्यास सेतू नाले का ड्रेनेज परेशानी है। सीवर लाइन प्रोजेक्ट से भी आधा ड्रेनेज खान में मिलेगा।
खान को फिर से खूबसूरत बनाने इसे झील में तब्दील किया जाए।

सपना चौहान (वार्ड 5)
मेरे वार्ड से खान नदी या उसके सहायक नाले नहीं हैं।
हम खान नदी में फिर से स्वच्छ और कल-कल जल का बहाव देखने के लिए कोशिश करेंगे।

राधा प्रजापत (वार्ड 6)
वार्ड का ड्रेनेज इसे दूषित करता है।
खान नदी को फिर से 365 दिन बहने वाली बनाने के लिए प्रयास करने होंगे। खान नदी को देख दु:ख होता है।

सुषमा यादव (वार्ड 7)
शेरपुर से मरीमाता तक का डे्रनेज पीलियाखाल नाले में मिलता है। बड़ी सीवर लाइन का काम होते ही समस्या बहुत कुछ हल होने की उम्मीद है।
चाहती हूं कि नदी को नदी का स्वरूप मिल जाए।

तनुजा खंडेलवाल (वार्ड 8)
सीवर लाइन में जुड़ने के बाद डे्रनेज की समस्या हल हो जाएगी। इसके अलावा छोटी-छोटी ब्रांच लाइन डाली जाएं तो ड्रेनेज नाले में मिलना बंद होगा। कैलाश मार्ग से अंतिम चौराहे तक डे्रनेज लाइन में मिलने से 50 हजार लोगों का ड्रेनेज सीवर लाइन से जुड़ जाएगा।
हम सृजन संस्था से जुड़ी हजारों महिलाओं के माध्यम से भी जनजाग्रति अभियान चलाएंगे।

सोनू राठौर (वार्ड 9)
क्षेत्र का डे्रनेज खान में नहीं मिलता।
सुंदर से नदी को जिंदा करने के लिए प्रशासन, निगम के साथ जनता की भागीदारी जोड़नी होगी।

विनिता धर्म (वार्ड 11)
शेखरनगर से हरसिद्धीकुंज तक का नाला खान को दूçष्ात कर रहा है। सीवर लाइन का कार्य पूर्ण होने के बाद काफी हद तक डे्रनेज मिलना बंद हो जाएगा।
नदी के आसपास वाटर रिचार्ज के उपाए करने होंगे।
१०   फ़रवरी २०१२ , पत्रिका , इंदौर 


मां को बचाने के लिए उठ रहे हाथ

नदी के किनारे सभ्यता बसती है। आज हमारी अपनी नदी मां हमसे पूछ रही है क्या तुम में थोड़ी सभ्यता बाकी है? पत्रिका की अपील मां को बचा लो, पढऩे के बाद शहर के कई संवेदनशील व सुधी पाठकों ने इस महाअभियान के साथ जुडऩे की इच्छा जताई। यह छोटी सी चिंगारी कल मशाल बनकर शहर के विकास का मार्ग प्रशस्त करे, यह आरजू सिर्फ हमारी नहीं, इस शहर के प्रबुद्धजन की भी है।

नामुमकिन कुछ नहीं
इस दुनिया में असंभव कुछ नहीं है बशर्ते इरादा पक्का हो। हम इन दिनों इंदौर शहर का बाहरी हिस्सा खूबसूरत बनाने में जुटे हैं और गंदगी को शहर के बीच में इकट्ठा कर रहे हैं। खान के शुद्धीकरण के लिए नदी के एक-एक हिस्से पर काम करना शुरू करें। एक हिस्सा साफ होता देख, बाकियों को प्रेरणा मिलेगी। जिम्मेदारों को इस काम में फंड का रोना नहीं रोना चाहिए क्योंकि मजबूत आर्थिक स्थिति वाली कंपनियों को जब मुफ्त में जमीन दी जा सकती है तो शहर की जीवनरेखा के लिए भी खर्च
किया जा सकता है।
चिन्मय मिश्र, सामाजिक कार्यकर्ता

शहर का पुनर्जन्म होगा
मुझे बहुत हैरानी होती है कि जब बात शहर के विकास और तरक्की की होती है तो हम सब आंख, कान और मुंह बंद क्यों कर लेते हैं। देखते ही देखते हमारी आंखों के सामने ही नदी नाले में बदल जाती है। ऐतिहासिक धरोहरें यूं ही लापरवाही की भेंच चढ़कर मिट जाती हैं। सरकारी संपत्ति निजी हाथों में चली जाती है और हम सिवाए चुप रहने के कुछ और नहीं कर पाते हैं। यदि हमने ईमानदारी से कोशिश की तो केवल खान नदी ही पुनर्जीवित नहीं होगी, शहर का पुनर्जन्म होगा। यहां आने वाले लोग एक बार फिर इंदौर का नाम गर्व से लेंगे।
सुशील गोयल, रंगकर्मी

हमें नाला नहीं नदी चाहिए
हमने बचपन से इसे नदी नहीं नाले के रूप में देखा लेकिन भविष्य में हमें नाला नहीं नदी चाहिए। क्यों हमारे शहर के बीचोबीच से गंदा पानी बहे? क्यों न एक साफ-सुथरी नदी बहे। जनसहयोग से अगर इस नदी को सुधारने की कोई भी योजना आएगी तो यूनिवर्सिटी के छात्र-छात्राएं इस काम में पूरे उत्साह व जोश के साथ मदद करने आएंगे।
वर्षा शर्मा, छात्रसंघ अध्यक्ष


प्राथमिकता यही हो
खान नदी हमारी जीवनरेखा है। हम अभागे हैं जो जीवनरेखा को ही दूषित कर रखा है। खान का शुद्धीकरण हमारे शहर की प्राथमिकता होना चाहिए। जब यह साफ रहेगी तो पूरा इंदौर साफ दिखाई देगा। आप सोचिए क्या शान होगी इंदौर की, एक ओर राजबाड़ा, दूसरी ओर शहर के बीचोबीच से बहती नदी। खान को संवारने की इस मुहिम में हम हर सहयोग देंगे।
कीर्ति पंड्या, राष्ट्रीय महासचिव, दिगंबर जैन सोशल ग्रुप फेडरेशन

नदी को नदी बनाना होगा

जिसे आज आप लोग नाला कहकर मुंह सिकोड़ते हो, आंखें फेर लेते हो, हम उसमें कभी नहाते थे। मैं मोती तबेला में रहता था और हरसिद्धि के घाटों पर बचपन में खूब तैरा हूं। दोस्त भी हमेशा साथ रहते थे। इस नदी को जिंदा करना आज हमारी अनिवार्य जरूरत बन चुकी है। अगर हम चाहते हैं कि शहर का पर्यावरण अच्छा रहे, हमारे बोरिंग, ट्यूबवेल में पानी का स्तर बना रहे तो हमें नदी को नदी बनाना होगा।
नूर मोहम्मद कुरैशी, सचिव इंडियन वॉटर वक्र्स

लौटेगी शहर की शान

खान नदी के पुनरुद्धार के साथ शहर की शान भी लौटेगी। कृष्णपुरा की भव्य छतरियां, घाट के किनारे बसे मंदिर सबकी रौनक खान नदी की शान के साथ चली गई। आज लोग कहते हैं कि मेहमानों को इंदौर शहर में क्या दिखाने ले जाएं? कल यदि खान नदी संवर गई तो इंदौर प्रदेश का ही नहीं यह देश का सबसे खूबसूरत शहर होगा। हम लोगों को सबकुछ छोड़कर इस नदी के पुनरुद्धार पर ध्यान देना चाहिए, तभी बदलाव होगा।
डॉ. गणेश मतकर, इतिहासविद्

नाम भी बदनाम भी
खान संवर गई तो इंदौर का नाम होगा, नहीं संवरी तो हम बदनाम होंगे। आप ही सोचिए जब अन्य शहर के लोग इंदौर आएंगे और शहर के बीचोबीच खान को देखकर क्या सोचते होंगे, यही कि कितना गंदा शहर है। शहर के बीचोबीच से नाला बहता है। इसमें बेचारी नदी का क्या कसूर, कसूर तो हमारा है, जो नदी को नाला बना दिया। हम इसे जिंदा कर पाए तो शहर में नायाब उदाहरण कायम होगा।
मुकुंद कुलकर्णी, सदस्य डेवलपमेंट फाउंडेशन


हर वार्ड में हो नदी संरक्षण समिति
शशिकांत अवस्थी
क्षिप्रा बचाओ अभियान

न नदी के पुनर्जीवन व संरक्षण से इंदौर का नहीं उज्जैन का भाग्य भी संवरेगा। हम 2004 से क्षिप्रा नदी के संरक्षण पर काम कर रहे हैं। इन आठ सालों के अनुभव के आधार पर विश्वास से कह सकते हैं खान के पुनर्जीवन से क्षिप्रा की समृद्धि भी लौट आएगी। उद्गम के बाद अलग-अलग प्रवाहों से गुजरते हुए क्षिप्रा उज्जैन पहुंचती है, जहां त्रिवेणी में खान नदी क्षिप्रा में मिलती है। त्रिवेणी के पहले की क्षिप्रा और त्रिवेणी की क्षिप्रा व त्रिवेणी संगम के बाद की क्षिप्रा देखिए, खान नदी क्षिप्रा मैया पर क्या असर डाल रही है? आप खुद समझ जाएंगे। खान नदी के साथ उसकी तमाम गंदगी व रसायन भी क्षिप्रा मां की गोद में समा जाते हैं। मुझे नहीं पता कितने लोगों ने इस पर ध्यान दिया कि त्रिवेणी घाट पर नदी में मछलियां नजर नहीं आतीं। क्यों? खान के साथ जो गंदगी यहां मिलती है, वो नदी के पारिस्थितिकी तंत्र को बुरी तरह बिगाड़ देती है। सहायक नदियां बड़ी नदी को समृद्ध बनाती हैं लेकिन यहां खान का संगम नदी का प्रदूषण बढ़ा रहा है। हमने अपनी नदियों की कितनी उपेक्षा की है, यह जानने के लिए इतना ही काफी है कि इंदौर के लोग कहते हैं हमारे यहां कोई नदी नहीं है। वो नहीं जानते कि क्षिप्रा भी इंदौर से अवतरित होती है। ज्यादातर लोग नहीं बता पाएंगे कि खान नदी का उद्गम कहां है? यदि इंदौर खान नदी को जिंदा करना चाहता है तो यहां पार्षदों को मिलकर वार्ड स्तरीय नदी संरक्षण समितियों का गठन कर देना चाहिए। ये समितियां जिम्मेदारी उठाएंगी कि उनके वार्ड का ड्रेनेज खान में न मिले।
नदी का क्षेत्र बताने वाले बोर्ड लगें
सरकार को खान के उद्गम पर एक सूचना बोर्ड लगाना चाहिए ताकि लोगों को पता चले कि यहां से खान निकलती है। खान जिस तालाब से पैदा हुई, उसे गहराकर संरक्षित करना चाहिए क्योंकि उस पूरे इलाके में कॉलोनियां कट रही हैं। नदी की लंबाई-चौड़ाई व प्रवाह के सूचना बोर्ड नदी के कमजोर (जहां गर्मियों में पानी कम पड़ता है) बिंदुओं पर दर्ज किए जाएं। स्पष्ट सूचना होने पर अतिक्रमणकारियों को रोका जा सकेगा। प्रशासन नदियों के उद्गम, लंबाई व क्षेत्रफल को परिभाषित कर अतिक्रमण न करने की चेतावनी भर लगा दे। उसके बाद तो हमारे किसान भाई नदी मैया को सहेजने में एड़ी चोटी का दम लगा देंगे।


http://epaper.patrika.com/24597/Indore-Patrika/09-02-2012#page/2/1

पत्रिका, इंदौर, ९  फरवरी २०१२







मां को बचा लो

भावनाएं जागृत हों तो खान नदी का हो सकता है उद्धार, बदल जाएगी इंदौर की तस्वीरपत्रिका महाभियान : उम्मीदों की खान
http://epaper.patrika.com/24530/Indore-Patrika/08-02-2012#page/1/1
अहमदाबाद में हुआ कमाल
* गुजरात के अहमदाबाद के बीच से बहने वाली साबरमती का हाल भी इंदौर की खान जैसा ही हो गया था।
* वहां के आर्किटेक्ट विमल पटेल ने एक योजना तैयार की तो गुजरात सरकार और नागरिकों ने उसे हाथों-हाथ लिया और साबरमती को जिंदा कर दिया।
* सवाल यही है कि क्या अहमदाबाद की तरह इंदौर में खान नदी को जिंदा नहीं किया जा सकता है?

नदी पानी का एक स्रोत नहीं बल्कि किसी भी शहर के लिए मां की मानिंद है। बरसों से यही आस्था सांस्कृतिक धरोहर का जीवंत प्रवाह रही है। दुनिया भर में जिन शहरों से कोई नदी गुजरी उसने एक सभ्यता की नींव रखी। लेकिन यही सभ्य समाज जब अपनी जड़ों को भूल जाता है तो उसका हश्र खान नदी की दुर्दशा के रूप में टीस देता है। कभी अपनी लहरों से शहर के दोनों किनारों को धोने वाली इस नदी के जिस्म पर आज दिख रहे फफोले किन्हीं आतताइयों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों, अपराधियों या किसी संगठित गिरोह की साजिश का नतीजा नहीं हैं। ये पुण्य सलिला हमारे ही हाथों मृतप्राय की गई है। आज अगर यह एक नाले के रूप में तबदील हुई है तो यह हमारी ही संवेदना मृत होने, हमारे ही संस्कार सुप्त होने और हमारे ही चारित्रिक पतन का प्रमाण है। फिर भी इस नदी को यकीन है कि अपनी मां की कोख में कीचड़ देखकर उसके कुछ बच्चों की आंखों में आंसू तो आते होंगे.... यकीन न हो तो आप इसके तट पर बैठें, आंखें बंद करें... बाहें फैलाकर मां कहती है ... मेरे बच्चो! तुम अपने बच्चों को बताना कि ये फफोले मां को बहुत दर्द देते हैं...।  

मैं खुद को अब नदी कहने से भी डरने लगी हूं...कैसे कहूं...मेरी रगों में अब कलकल बहता नीर नहीं...काला पानी है...मुझे नाला कहा जाता है...या तो मैं मर चुकी हूं या मृत शैय्या पर हूं...मैं जीना चाहती हूं...फिर से मेरे किनारों पर हंसते-खिलखिलाते चेहरे देखना चाहती हूं...मेरी ख्वाहिश है कि इस शहर की जीवन रेखा बनूं...मैं चाहती हूं कि शहर के पाताल तक को तर कर दूं जिससे कि शहर के ट्यूबवेल और कुएं पानी से लबालब रहें... मेरी मंशा है कि मेरे किनारों पर पेड़ों की कतार रहे। इन पर परिंदों का बसेरा हो...और न जाने क्या क्या चाहती हूं मैं...।
ऐसा नहीं है कि मैंने ये ख्वाब यूं ही बुन लिए। मैं इस शहर में 350 साल से हूं। शहर से 11 किमी दूर उमरिया गांव की उसी पहाड़ी से निकली हूं जिससे पवित्र बहन क्षिप्रा का जन्म हुआ। हम दो जिस्म एक जान हैं। एक जिस्म मेरा ही है जिसे खान कहते हैं और दूसरी सरस्वती। हम दोनों अलग-अलग रास्तों, तालाबों, नहरों,पुलों से होकर शहर के ह्दय कृष्णपुरा छतरी पर मिलती हैं। वहां से एक नाम हो जाता है, खान नदी। वैसे मेरा मूल नाम कान्ह था जो कृष्ण से कृष की कान्ह से खान बन गया।
हमारी ताकत को होलकर राजाओं ने पहचाना था, इसीलिए चालीस से ज्यादा बांध बनाकर हमारे पानी को बांधा था। शुरुआत दक्षिण मेंं मौजूद बिजलपुर और निहालपुर मुंडी गांवों से की थी। दोनों जगह तालाब बने हुए हैं। इन्हें भरने के लिए पूरा बंदोबस्त है। मुंडी गांव से बिजलपुर के पीछे हैदर कॉलोनी में काले पत्थरों से बंधा बांध कहानी कहता है। बांध के पास ही दूसरा ढांचा बना दिया गया और दिशा बदलने की कोशिश की गई है ताकि जमीन बच जाए और इस पर कॉलोनी काट दी जाए। ऐसा ही हर जगह हुआ। कहीं दिशा बदली तो कहीं किनारे पर रिटेनिंग वॉल बना दी गई। बिजलपुर में ही देखो, गुलकंद फैक्टरी के पीछे अर्जुन नगर में तो अब भी निर्माण चल रहा है। सोचती हूं, क्या मेरे किनारों से १०० मीटर दूर तक निर्माण नहीं करने का जो कानून बना था, वह तोडऩे के लिए ही था। दस मीटर जगह भी खाली नहीं मिलती।
ऐसा भी नहीं है कि मेरी रगों में काला पानी किसी ने एक दिन में डाल दिया हो। यह जहर धीरे-धीरे घुला है और उन लोगों के सामने हुआ जिन्हें मेरी सांसों की परवाह करना थी। परवाह करने वाले बस वादे करते रहे कि अब हम इसे जिंदा करेंगे। बात वर्ष 1985 की है। महेश जोशी आवास एवं पर्यावरण मंत्री थे। उन्होंने कुछ लाख का खान प्रोजेक्ट बनाया था। पैसा खर्च हुआ लेकिन मुझे जिंदगी नहीं मिली। मंत्री-मुख्यमंत्री बदलते गए और वादे होते ही रहे। सुंदरलाल पटवा, दिग्विजय सिंह, बाबूलाल गौर, शिवराज सिंह चौहान और पता नहीं कौन-कौन आए और बातों के पुल बांधकर चले गए।
पूछती हूं, क्या वास्तव में मुझमें सांस फूंकना आसमान से तारे तोडऩे जितना असंभव है? क्या जिम्मेदारों को देश के अन्य हिस्सों में मेरी तमाम बहनों के उदाहरण नहीं पता। थोड़ी शिद्दत, थोड़ी कोशिश से नदियां जिंदा की गई हैं। योजनाओं की छोडिय़े, बस आपकी भावना, आपकी इच्छाशक्ति मुझमें प्राण फूंक सकती है। मैं वचन देती हूं- जिंदा हो गई तो इंदौर की तस्वीर बदल दूंगी। मैं नर्मदा और यमुना के बेसिन पर पली-बढ़ी हूं। नदियों से आने वाली समृद्धि देने की क्षमता रखती हूं ... बस ठान लो, बाकी मुझ पर ही छोड़ देना... जानते हैं मैं आपकी ही... अपनी खान हूं...।

नदियां ही नदियां 
वैसे तो शहर की पहचान एक ही नदी से है, नाम है खान, लेकिन नदियों की यहां कमी नहीं है। सेप्ट यूनिवर्सिटी की छात्रा आर्शिया कुरैशी ने जुलाई २००७ में शोध कार्य पेश किया था। इसके मुताबिक इंदौर में दस नदियां हैं, जो सब मिलकर खान बन जाती है और बाद में क्षिप्रा में मिल जाती है।

बड़ा गुनाह कर रहे हम
खान नदी में बहने वाली गंदगी आगे चलकर क्षिप्रा में मिलती है। क्षिप्रा उज्जैन जाती है और वहां के लोगों की प्यास बुझाती है। कितनी अजीब बात है कि हमारी लापरवाही से उनकी सेहत खतरे में है। इसे रोका जाना बेहद जरूरी है। और यह बात, इंदौर के मास्टर प्लान में भी दर्ज की गई है।

दो बड़ी योजनाओं से खड़े हो रहे दो संदेह
पहला संदेह : रिवर साइड कॉरिडोर  
जेएनएनयूआरएम के तहत खान नदी के किनारों पर सड़क बनाने के इस प्रोजेक्ट पर २१० करोड़ रुपए खर्च होना है लेकिन उसमें भी केवल 14.5 किमी हिस्से पर ही काम होगा। दरअसल इस हिस्से को पर्यटन स्थल बनाने की कोशिश है। शहर से होकर गुजरने वाले शेष 10.5 किमी के बारे में कोई योजना तैयार नहीं है। 
पहला रास्ता : कॉरिडोर के साथ नदी
रिवर साइड कॉरिडोर के साथ ही खान नदी पुनर्जीवन प्रोजेक्ट को जोड़ दिया जाए और इसके लिए भी जेएनएनयूआरएम से फंड लिया जाए। दोनों प्रोजेक्ट साथ-साथ चलाकर ही नदी के स्वरूप को बचाना और उसे जिंदा करना संभव होगा। अन्यथा, रिवर साइड कॉरिडोर नदी पर सरकारी अतिक्रमण बनकर रह जाएगा।
दूसरा संदेह : सीवरेज प्रोजेक्ट 
जेएनएनयूआरएम के तहत ही शहर की गंदगी के नियोजित तरीके से निपटान के लिए जमीन की गहराई में ४४२ करोड़ रुपए से सीवरेज का ढांचा खड़ा किया जा रहा है। इस ढांचे में कॉलोनियों के सीवरेज को जोड़ा जाना है, लेकिन यह तय नहीं है कि इस प्रोजेक्ट के खत्म होने पर खान नदी में गंदगी नहीं डलेगी।
दूसरा रास्ता : ट्रीटमेंट प्लांट -वेटलैंड
इस प्रोजेक्ट को नदी के साथ सीधे जोड़ा जाए ताकि किसी भी स्थिति में नदी में एक भी लीटर गंदा पानी न जा सके। नदी के किनारों पर पाइप डालने के साथ ही थोड़ी थोड़ी दूरी पर ट्रीटमेंट प्लांट बनाए जाएं। साथ ही, गंदे पानी को साफ करने के लिए वेटलैंड को अपनाया जाए।

फंड की कोई कमी नहीं

जल प्रबंधन के तहत जेएनएनयूआरएम के द्वितीय चरण में केंद्र बड़ी राशि देने की तैयारी में है। इसके लिए 200 से 500 करोड़ रुपए तक लिए जा सकते हैं। इंदौर में तो इस काम के लिए दानदाताओं की कमी भी नहीं आएगी। कई सामाजिक संगठन भी एकजुट होकर काम करने को राजी है।

पांच चरण से कायापलट


पहाड़ों की हरियाली
बायपास के पीछे की पहाडिय़ों पर एक जमाने में शिकार हुआ करते थे, अब ये पहाडिय़ां नंगी हो गई हैं। पेड़ नहीं है। इन पर हरियाली करना आसान है। वन विभाग आगे आए, पौधारोपण करे और पानी आने के तंत्र को विकसित करे। साथ ही, पहाड़ों पर होने वाले खनन को रोके, जो अवैध निर्माण किये गये हैं, उन्हें ध्वस्त किया जाए।
तालाबों का चैनल
रालामंडल, लिंबोदी, निहालपुर मुंडी, बिजलपुर और बिलावली के तालाबों के नेटवर्क को मजबूती दी जाए। इन तालाबों में पहुंचने वाले पानी के मार्ग में कई रुकावटें खड़ी हो गई हैं। इन्हें ध्वस्त करके तालाब भरे  जाएं और पानी आगे बढ़ाया जाए। यह काम जिला प्रशासन को करना होगा। इन पांच तालाबों से पिपलियापाला  तालाब लबालब हो जाएगा और पानी की कमी नहीं आएगी।
अवैध निर्माण ध्वस्त
आबादी के साथ ही अतिक्रमण भी हो गए हैं। किनारों पर किए गए निर्माणों को चिह्नित करके इन्हें ध्वस्त करने की कार्रवाई हो। जहां किनारे खाली हैं वहां नए निर्माण हरगिज न हों। यह दायित्व नगर निगम का है और पूरा शहर उसके साथ खड़ा होने को तैयार है। सबसे पहले उन उद्योगों को हटाया जाए, जो किनारे पर लगे हैं और खतरनाक अपशिष्ट नदी में बहाते हैं।
गंदगी समेटने के पाइप
न दी की लंबाई करीब ५५ किमी है। शहर के मध्य में जहां बहती है, वहां गंदगी सीधे इसमें छोड़ी जा रही है। इस गंदगी या ड्रेनेज से निपटने का सबसे आसान रास्ता नदी के किनारे-किनारे बड़े आकाार के पाइप डाले जाएं और इनमें गंदगी के आउटलेट जोड़ दिए जाएं। यह कम खर्चीला और आसान रास्ता है। इसमें शहर में संचालित सीवरेज प्रोजेक्ट से भी मदद मिल सकती है।
किनारों पर पानी के भंडार 
जहां पेड़ हैं, वहां पानी है। प्रकृति के इस अंतिम सत्य और पारिस्थिकी तंत्र को समझते हुए किनारों पर घास, पौधे और पेड़ों का ढांचा विकसित किया जाए। यह नेटवर्क बरसात के पानी को अपनी जड़ों में समेटेगा और गर्मी में इसे छोड़ेगा। इससे नदी में पूरे साल बहाव बना रहेगा। इस काम का जिम्मा वन विभाग को सौंपा जा सकता है।
लंदन की टेम्स नदी को जिंदा किया जा सकता है तो इंदौर की खान को क्यों नहीं? अफसर, नेता और प्रबुद्ध नागरिक एकजुट होकर वैचारिक बदलाव लाएं तो काम शुरू हो जाएगा। इस अनमोल प्राकृतिक धरोहर को बचाने में आर्थिक संसाधनों की कोई कमी नहीं है। 
श्रेया भार्गव, पर्यावरण कार्यकर्ता

होलक र काल में इंदौर में दस नदियां थीं और इनके पानी को सहेजने के लिए बांध खड़े किए गए थे । बांधों के ढांचे आज भी मौजूद हैं। गड़बड़ी यह हुई कि हम अपनी पर्यावरण जरूरतों को भूलते गए और नदी खोती चली गई। पुरानी व्यवस्था को आज भी संभाल लें तो तस्वीर बदल जाएगी।
किशोर कोडवानी, सामाजिक कार्यकर्ता

खान नदी को पुनर्जीवित करने के लिए अब तक जो भी कोशिशें की गई वे अधूरी कोशिशें थीं। इस नदी को जिंदा करने के लिए सभी विभागों को जोड़कर एक नोडल एजेंसी बनाना होगी। इसमें सिविल सोसाइटी की भी बहुत बड़ी भूमिका रखना होगी। 
नरेन्द्र सुराणा , सचिव, सीईपीआरडी

बड़ी इच्छा है कि यह नदी पूरी तरह जिंदा हो जाए। नहर भंडारा के हिस्से से हमने शुरुआत की थी, लेकिन अभी उसमें बहुत काम बाकी है। हम वित्तीय संसाधन जुटाने की कोशिश में हैं ताकि नदी को समग्र तरीके से सुधारा जा सके। अतिक्रमण हटाने का काम हर साल किया जाता है, इसे भी व्यापकता देना होगी। सबको मिलकर ही कुछ करना होगा। हम हर संभावना पर काम करने को राजी हैं।
कृष्णमुरारी मोघे, महापौर

खान नदी को पुनर्जीवित करने की हम पूरी कोशिश कर रहे हैं। अभी रिवर साइड कॉरिडोर और सीवरेज प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है। इन दोनों से नदी को फायदा होगा लेकिन यह कह पाना संभव नहीं है कि इनसे नदी जिंदा हो ही जाएगी। नदी के लिए नई योजना बनाई जा सकती है। इसके लिए शहर के प्रबुद्ध नागरिकों से भी चर्चा करके व्यापक योजना तैयार करेंगे।
प्रभात पाराशर, संभागायुक्त

खान नदी को फिर से शुरू करने के लिए व्यापक योजना बनाने की आवश्यकता है। वैसे, अभी रिवर साइड कॉरिडोर पर काम चल रहा है। इसके साथ ही पूरी योजना को लिया जा सकता है। राज्य सरकार नदी पुनर्जीवन योजना पर काम कर रही है और इसके तहत क्षिप्रा नदी का प्रोजेक्ट लिया जा रहा है। इस योजना के साथ ही खान नदी को जोडऩे की संभावनाएं भी तलाशी जा सकती है।  
राघवेंद्र सिंह, कलेक्टर

यह वास्तव में उम्मीदों की खान है। अब तक जो भी प्रयोग हुए हैं, वे अधूरे थे और इनका उद्देश्य स्पष्ट नहीं था। नए सिरे से योजना बनाकर नदी सुधारने की कोशिश करेंगे। इसमें नगर निगम व जिला प्रशासन की अहम भूमिका है क्योंकि नदी के किनारों के अतिक्रमण व उद्योगों को सख्ती से हटाना होगा। इसके बाद गाद निकलेगी और नदी बहने लगेगी। यह कदम शहर के लिए बेहद सुकूनदेह होगा।
सुमित्रा महाजन, सांसद


कोशिशें कमजोर थी इसलिए नहीं मिला अंजाम 
http://epaper.patrika.com/24530/Indore-Patrika/08-02-2012#page/2/1


वर्ष १९८५ से २०११ तक अलग-अलग नेताओं और अफसरों के कार्यकाल में खान नदी को पुनर्जीवित करने के लिए कई योजनाएं बनी, रुपए खर्च हुए, लेकिेन नतीजा कुछ नहीं निकला। एक तय सरकारी नियम के तहत हर वर्ष नदी क्षेत्र की सफाई का विशेष अभियान भी चलाया जाता है। यह अभियान भी किसी अंजाम तक नहीं पहुंच पाता है। दरअसल, नदी को जिंदा करने की जितनी भी कोशिशें हुईं, वे बेहद कमजोर, दिखावटी व अधूरी थीं, इसलिए अंजाम तक नहीं पहुंची।  
२७ साल में चले  चार कदम
१९८५
योजना : तत्कालीन आवास एवं पर्यावरण मंत्री महेश जोशी ने बाढ़ नियंत्रण के नाम पर केंद्र सरकार से योजना मांगी और वहां से मंंजूरी भी मिल गई। सरवटे बस स्टैंड के पास काम की शुरुआत होना थी।
ऐसे हुई फेल : केंद्र सरकार को शिकायत हो गई कि खान नदी नहीं नाला है और इससे बाढ़ नहीं आती है। इस पर केंद्र ने योजना छीन ली।
१९९२
योजना : तत्कालीन संभागायुक्त विजयसिंह, निगम प्रशासक एस.एस. उप्पल, इंजीनियर सी.एम. डगांवकर आदि ने ओडीए प्रोजेक्ट के तहत नदी में नई पाइप लाइन बिछाने की योजना बनाई, ताकि गंदा पानी उसके जरिए बहाया जा सके। किनारे पर नगर निगम ने शिवाजी मार्केट के पीछे उद्यान, बैठक व्यवस्था भी बनाई।
ऐसे हुई फेल : करीब सवा दो करोड़ रुपए खर्च हो गए, लेकिन नतीजा नहीं निकला क्योंकि योजना समग्रता के साथ तैयार नहीं की गई थी। साथ ही पानी के बहाव को समझे बगैर काम शुरू कर दिया गया था।
२००६
योजना : तत्कालीन मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने चिडिय़ाघर के पास संवादनगर से छावनी पुल के बीच 1.८० करोड़ की योजना बनाकर सौंदर्यीकरण और नाव चलाने की योजना घोषित की। इसी दौर में, तत्कालीन विधायक लक्ष्मणसिंह गौड़ और पार्षद लोकेंद्रसिंह राठौर ने नहर भंडारा से विष्णपुरी, ट्रांसपोर्टनगर के हिस्से में नाले की सफाई का जिम्मा लिया।
ऐसे हुई फेल :  विजयवर्गीय की योजना 20 लाख रुपए खर्च करने के बाद बंद हो गई, क्योंकि यह तत्कालीन महापौर डॉ. उमा शशि शर्मा को हैरान परेशान करने का कदम भर था। इसी तरह गौड़-राठौर ने भी बाद में काम बंद कर दिया।
२०११
योजना :  महापौर कृष्णमुरारी मोघे और आवास पर्यावरण मंत्री जयंत मलैया ने नहर भंडारा में नाव चलाने के लिए फिर से काम का भूमिपूजन किया। नदी में आ रही सीवरेज लाइन को रोकने की योजना थी। इसके लिए दो महीने तक गाद निकाली गई।  
ऐसे हुई फेल :  बारिश के पहले काम शुरू किया गया, इसलिए जो गंदगी निकाली गई, वह कुछ दिन बाद ही बहाव के साथ वापस जमा हो गई। हालात जस के तस हैं।
दिल्ली
यमुना को साफ करने के लिए दिल्ली की सरकार संंजीदा है और बड़े प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है।
पाली

जोधपुर के पास स्थित इस जिले की दो नदियोंं बंडी और लूनी के प्रदूषण को दूर करने के लिए नागरिकों ने  सराहनीय कदम उठाए हैं।
हरिद्वार

 अवैध खनन के कारण गंगा नदी को होने वाले नुकसान के विरोध में स्वामी निगमानंद सरस्वती ने करीब चार महीने तक आमरण अनशन किया और मौत को गले लगा लिया।  
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हमारी खान का रास्ता
- उमरिया गांव के पास क्षिप्रा पहाड़ी से निकलकर लिंबोदी, तीन इमली, आजाद नगर, चिडिय़ाघर, छावनी अनाज मंडी, दौलतगंज, प्रेमसुख टॉकिज, रिवरसाइड रोड होते हुए कृष्णपुरा छत्री पहुंचने वाली नदी का नाम असल में कान्ह है, इसे ही खान कहा जाने लगा। 
- निहालपुर मुंडी तालाब से बिलावली-पिपलिया पाला होकर नहर भंडारा में जाने वाली नदी को सरस्वती कहते हैं। एक नदी बिजलपुर तालाब से गमले वाली पुलिया होते हुए तेजपुर गड़बडी़ होकर चोइथराम मंडी के पीछे सरस्वती नदी से मिलती है।
- चोइथराम मंडी से दोनों लालबाग, कर्बला, जयराम पुरा, छत्रीबाग, बंबई बाजार, मछली बाजार, पंढरीनाथ, मोती तबेला, चंद्रभागा, प्रेमसुख से होकर कृष्णपुरा छत्री पर खान से मिलती हैं।  कृष्णपुरा से रामबाग, डीआरपी लाइन, भंडारी मिल, कुलकर्णी भट्टा, भागीरथपुरा पुर होते हुए कबीटखेड़ी प्लांट पर पहुंचती है। आगे चलकर क्षिप्रा में मिलती है।

और भी बहाव 
- एक नदी सुख निवास से शुरू होकर रणजीत हनुमान,  आदर्श इंद्रानगर में ईंट भट्टों के पास मिलती है। एक अन्य नदी सिरपुर के आगे से कालानीनगर, हुकुमचंद कालोनी, पंचकुईया के आगे मिलती है।
- सिरपुर के दूसरे हिस्से से चलने वाली नदी चंदननगर, रामचंद्रनगर, पंचकुईया पर जाकर ऊपर वाली नदी से मिलती है।  स्कीम ७१ से एक और नदी गोविंदनगर, पेनजॉन कालोनी, बाणेश्वरीकुंड, सांवेर नाका, मरीमाता चौराहे के पहले संगम में मिल जाती है।
- गांधीनगर इंडस्ट्रियल एरिया, एमआर-१० से कबीटखेड़ी ट्रीटमेंट प्लांट तक बड़ा नाला है, जो कभी नदी की शक्ल में बहता था। वहीं,  पीपल्याहाना से शुरू होकर नवरत्नबाग, बड़ी ग्वालटोली, इंद्रनगर, पलासिया, देवनगर, पंचमफेल, मालवामिल, जनता क्वार्टर, सर्वहारा नगर, जीवन की फेल, कुलकर्णी भट्टा, परदेशीपुरा, भागीरथपुरा पुल पर जाने वाला नाला पीपल्याहाना की नदी कहलाता था। 

नदी में बहा रहे बेहिसाब गंदगी
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक २३९ एमएलडी गंदगी हर दिन छोड़ता है शहर
निगम ने ८० एमएलडी गंदगी के हिसाब से कबीट खेड़ी का ट्रीटमेंट प्लांट बना रखा है
जो १५९ एमएलडी का अंतर आ रहा है, वह गंदगी बगैर ट्रीटमेंट के क्षिप्रा नदी में जा रही है
सड़कों का नेटवर्क १७१० किमी है, जबकि ड्रेनेज ६०० किमी ही।  १११० किमी का जो फर्क है, उसका क्या?

खान नदी की सबसे बड़ी समस्या इमसें आ रही गंदगी यानी सीवरेज है। इस सीवरेज को सही तरह से निपटाया जाना चाहिए ताकि नदी साफ रहे। ताज्जुब तो यह है कि इंदौर को पता ही नहीं है, वह अभी कितनी गंदगी खान नदी में बहा रहा है ।
निगम ने कबीट खेड़ी में एक ट्रीटमेंट प्लांट बनाया है, उसकी क्षमता ८० एमएलडी पानी साफ करने की है। माना जाता है कि शहर में इतनी ही गंदगी निकलती है, जबकि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़े बताते हैं कि शहर में हर दिन २३९ एमएलडी गंदा पानी छोड़ा जाता है। दोनों के बीच का अंतर हो गया १५९ एमएलडी । यह कहां जाता है और कैसे साफ होता है, सरकार नहीं जानती?
एक तथ्य यह भी है कि शहर में सड़कों का नेटवर्क १७१० किमी का है जबकि ड्रेनेज का ६०० किमी ही।  जानकार कहते हैं कि सड़कों की लंबाई के बराबर ही ड्रेनेज लाइन होना चाहिए, क्योंकि शहर में जहां सड़क होती है, वहां बसाहट रहती ही है। यहां भी १११० किमी का अंतर आ गया है। इस अंतर को खत्म करने के लिए क्या किया जा रहा है, इसकी जानकारी भी योजनाकारों के पास नहीं है।
अब जो ड्रेनेज मौजूद है, उसकी बात करें। इसका ९० प्रतिशत नेटवर्क खुला हुआ है। पूरे नेटवर्क में शहर की ५५ प्रतिशत गंदगी बहती है। शेष गंदगी सेप्टिक टैंकों के जरिए नालों में जुड़ जाती है। सेप्टिक टैंकों से १४६४ पब्लिक टॉयलेट जुड़े हुए हैं। इनकी जो गंदगी नालों में जा रही है, वह अंत में नदी में ही जाती है। खुले ड्रेनेज के कारण शहर में बीमारियां फैलती हैं और दुर्घटनाएं भी होती हैं। इसे बंद करने के लिए अब तक कभी कोई समग्र प्रयास नहीं किए गए हैं।
इन सभी बातों को जोड़कर देखने  की जरूरत है क्योंकि सीवरेज और नदी दोनों आपस में मिले हुए हैं। इन्हें जुदा करके ही नदी को नदी के अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है। इसके लिए नागरिकों के साथ ही नेता-अफसरों को भी अपनी सोच में मोटा बदलाव लाना होगा। यह भी मानना होगा कि यह काम असंभव तो बिल्कुल भी नहीं है।


नोडल एजेंसी जरूरी
इंदौर। तमाम योजनाओं की गहराई में जाएं तो हम पाते हैं कि योजना को समग्र रूप दिया ही नहीं गया। छोटे-छोटे हिस्सों में ढांचा तैयार किया और छोड़ दिया। ऐसा करके कभी सफलता हासिल हो ही नहीं सकती। इन योजनाओं के बेनतीजा खत्म होने के बाद इस बात की जरूरत महसूस की जा रही है कि नदी को जिंदा करने के लिए एक नोडल एजेंसी बनाई जाए जो समग्र रूप से इस मुद्दे को देखे और सोचे। साथ ही सभी विभागों, अफसरों और नेताओं के बीच तालमेल बनाकर नदी को नदी के अंजाम तक पहुंचा सके। इस काम में नागरिकों को  भी जोड़ा जाए।
देश दुनिया में नदियां जिंदा करने के लिए तरह-तरह की कोशिशें हो रही हैं। कहीं लोग सड़कों पर आ रहे हैं तो कहीं आमरण अनशन चल रहे हैं। वहां लोगों को लग रहा है कि उनकी पर्यावरण जरूरतें नदी से पूरी हो सकती हैं। नदी से ही उनके शहर की आबो-हवा के साथ ही भूमिगत पानी को सहेजा जा सकता है। जानकार कहते हैं, नदी को खत्म करने की ताकतें पूरी दुनिया में काम कर रही हैं। ये ताकतें सोचती हैं कि नदियों को पाट दिया जाए और उन पर शापिंग मॉल, सड़क या पार्किंग बनाकर बेच दिया जाए। यह बाजार की सोच की है। इन सोचों को चतुराई से आगे बढ़ाया जाता है।
इंदौर के मास्टर प्लान में भी इस तरह की कोशिश की गई है। इसमें हथियार डालने के अंदाज में लिख दिया गया कि खान व सरस्वती नदियां वर्षा जल के साथ नगर के दक्षिण-पूर्व और दक्षिण-पश्चिम दिशा में १० से १५ किमी दूरी से वर्षा जल अपने साथ बहा लाती है। इसलिए औसत खर्च में भूमिगत जल और मल निकासी के लिए पाइप लाइन बिछाना संभव नहीं है। इस तरह की अड़चनें हर नदी के साथ खड़ी की जाती हैं। फिर भी जहां नागरिक जागरूक हैं, वहां बाधाओं को पार करके नदियों को जिंदा किया गया है।