[मिसाल]
पंजाब की १६० किमी लंबी काली बेई को जिंदा कर चुके संत सींचेवाल इंदौर, सिटी रिपोर्टर। क्या इंदौर की नदी मां, खान नदी, को जिंदा करने के लिए सिख संत सींचेवाल जैसे संत मिल पाएंगे? क्या किसी प्रेरणा देने वाले संत के पद चिह्नों पर चलकर हम भी अपनी नदी को साफ और स्वच्छ पानी से जिंद कर पाएंगे?
'उम्मीदों की खानÓ महाअभियान में ये प्रश्न उठना लाजिम हो रहे हैं। दरअसल, नदी को जिंदा करने की मुहिम में संत सींचेवाल एक बड़ा चमत्कार कर चुके हैं। उन्होंने पंजाब के होशियारपुर जिले की मुकेरियां तहसील के गांव घनोआ के पास से व्यास नदी से निकल कर बहने वाली १६० किमी लंबी 'काली बेईÓ नदी को जिंदा कर दिया है। काली बेई होशियारपुर, जालंधार व कपूरथला जिलों को पार करती है, लेकिन इसमें इतनी मिट्टी जमा हो गई थी कि नदी मर ही गई। नदी में किनारे के कस्बों-नगरों और सैकड़ों गांवों का गंदा पानी गिरता था। किनारों पर भी गंदगी के ढेर थे। जल कुंभी ने पानी को ढक लिया था। कई जगह पर तो किनारे के लोगों ने नदी के पाट पर कब्जा कर खेती शुरू कर दी थी।
मंथन बैठक में उपजे सींचेवाल
नदी के किनारे गुरु नानकदेव को अध्यात्म बोध हुआ था व नदी खत्म हो थी। इससे बुद्धिजीवी चिंतित थे। जालंधर में 15 जुलाई 2000 को हुई एक बैठक में लोगों ने काली बेई की दुर्दशा पर चिंता जताई। बैठक में उपस्थित सड़क वाले बाबा के नाम से क्षेत्र में मशहूर संत बलबीर सींचेवाल ने नदी को वापस लाने का बीड़ा उठाया। अगले दिन बाबाजी शिष्य मंडली के साथ नदी साफ करने उतरे। उन्होंने नदी की सतह पर पड़ी जलकुंभी की परत को हाथों से साफ करना शुरू किया तो फिर उनके शिष्य भी जुटे।
विरोध में जुटे थे नेता
सुल्तानपुर लोधी में काली बेई के किनारे जब टेंट डालकर ये बाबा के शिष्य जुटे तो वहां के कुछ राजनैतिक दल के लोगों ने विरोध किया और ताकत भी दिखाई। पर लोग डिगे नहीं।
जनभागीदारी की मिसाल
इतने बड़े काम के लिए रुपए की व्यवस्था कैसे हुई होगी, यह सवाल उठना स्वभाविक है। इसमें जनता का सहयोग रहा। विदेशों में रहने वाले सिखों ने भारी मदद दी। इंग्लैण्ड में बसे शमीन्द्र सिंह धालीवाल ने मदद में एक जे.सी.बी. मशीन दे दी, फिर तो मदद के हाथ बढ़ते ही चले गए। लोग अपने सामान जैसे गेंती, फावड़े, तसले आदि स्वयं लेकर आते हैं। जो नहीं ला पाते उन्हें दिए जाते हैं। गांव-गांव से लोग आकर निष्काम भाव से सेवा देते रहे। कोई बड़ा हल्ला भी नहीं। आस्था जरूर बड़ी दिखती थी।
इस रणनीति पर चला काम
सींचेवाल गांव वालों को बुलाने संदेश भेजते, गांव वाले आते तो समझाते। सिखों की कार सेवा वाली पद्धति ही यहां चली। हजारों ने साथ में काम किया। नदी साफ होती गई।
बाबा स्वयं लगातार काम में लगे रहे। उनके बदन पर फफोले पड़ गए। पर कभी उनकी महानता के वे आड़े नहीं आए।
नदी के रास्ते को निकाला तो फिर उस पर घाटों का निर्माण चालू हुआ। कहीं किसी इंजीनियर की जरूरत नहीं पड़ी। बाबा जमीन पर उंगली से लकीरें खींच देते और लोग मिलकर उन्हें बना डालते।
नदी किनारे नीम-पीपल के पेड़ लगाए। हरसिंगार, रात की रानी व दूसरे खुशबू वाले पौधे भी लगाए। फलदार वृक्ष भी लगाए। इससे सुंदरता के साथ नदी किनारे फल व छाया का इंतजाम भी हो गया। इससे भविष्य में नदी पर कब्जा करने की संभावना भी शून्य हो जाती है।
राज्य सरकार ने नौ करोड़ से वाटर ट्रीटमेंट प्लांट बनाया, लेकिन वह काम का नहीं था।
बाबा से जिला प्रशासन ने कुछ सोच समझ कर रास्ता निकालने के लिए तीन दिन का समय लिया, पर फिर भी कुछ नहीं
हुआ। तब सुल्तानफर लोधी में बाबा की ओर से वाटर ट्रीटमेंट प्लांट का पानी नदी में गिरने से रोक दिया गया।
योजना यह बनी कि ट्रीटमेंट प्लांट से पानी की निकासी खेतों में कर दी जाए। जिसके लिए शुरुआत में आठ किलोमीटर लंबी सीमेंट पाईप लाईन बिछाई गई और काम चालू हो गया।
धर्म-कर्म पर 8 अरब और नदी मां पर?
किशोर कोडवानी, सामाजिक कार्यकर्ता
मां के आंचल में शिशु मल-मूत्र करता है, तो मां वात्सल्य से उसे साफ करती है। बच्चे के हर अवगुण को ममत्व के वशीभूत होकर आंचल में समेट लेती है। यही बच्चे बड़े होकर वसीयत की होड़ में मां का आंचल मैला करने लगते हैं, फिर भी मां दुआ देती है। दुष्कर्मों का फल बच्चे जरूर भोगते हैं। मेरी मां बचपन में मुहावरा सुनाती थी, जियरे कयों दंगम-दंगा, मोये पहुंचायें गौरा गंगा। (जीते-जी करो वाद-विवाद फिर क्यों पहुंचाते हो मरने के बाद अस्थियों को गंगा।)
उज्जैन- ओंकारेश्वर तीर्थ यात्रियों की पड़ाव स्थली कान्ह (खान) सरस्वती का किनारा पंढरीनाथ क्षेत्र रहा है। सन 1818 में मंदसौर संधि के कारण होलकरों ने इंदौर को राजधानी बनाया और मात्र 184 वर्षों में इंदौर विकास के मामले में देश का 14वां बड़ा शहर बन गया। इस दौड़ में 49 हजार 227 हेक्टेयर क्षेत्र की 781 हेक्टेयर नदी-तालाबों की जमीन पर हमने अपनी बुरी नजर डालकर नदी मां का आंचल मैला ढोने की मालगाड़ी बना दिया है। फिर हम पूत या कपूत हैं? क्या 265 वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैली मात्र 210 किमी लंबी 11 नदियां, जो कि हमारी जमीन का एक प्रतिशत हिस्सा है, को हम साफ नहीं रख सकते? 650 करोड़ रुपए के सीवरेज प्रोजेक्ट में नदियों में ड्रेनेज का बहाव रोकने का कोई प्रावधान क्यों नहीं किया गया?
शहर में सालाना 800 करोड़ रुपए धार्मिक आयोजनों पर खर्च करने वाले नदियों को नहीं बचा सकते? शहर में समाजकार्य पढ़ रहे 3000 व इंजीनियरिंग पढ़ रहे 5000 विद्यार्थी मिलकर मां के आंचल का मैला नहीं धो सकते। 40 लाख हाथ नदी मां की ममता के आंचल की चुनरी शहर पर नहीं ओढ़ा सकते। संवेदनशील जिलाधीश आगे बढ़ें। धर्मसभाओं में जननी, जन्मभूमि, गऊ माता, वृक्ष संस्कार सुनकर भी नहीं सीखे तो कब समझेंगे? 94 प्रतिशत भूजल दूषित कर पी रहे हैं। मौत से नहीं डर रहे हैं क्या विनाश से समझेंगे?
१२ फ़रवरी २०१२ , रविवार , पत्रिका इंदौर
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