मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

मां को बचा लो

भावनाएं जागृत हों तो खान नदी का हो सकता है उद्धार, बदल जाएगी इंदौर की तस्वीरपत्रिका महाभियान : उम्मीदों की खान
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अहमदाबाद में हुआ कमाल
* गुजरात के अहमदाबाद के बीच से बहने वाली साबरमती का हाल भी इंदौर की खान जैसा ही हो गया था।
* वहां के आर्किटेक्ट विमल पटेल ने एक योजना तैयार की तो गुजरात सरकार और नागरिकों ने उसे हाथों-हाथ लिया और साबरमती को जिंदा कर दिया।
* सवाल यही है कि क्या अहमदाबाद की तरह इंदौर में खान नदी को जिंदा नहीं किया जा सकता है?

नदी पानी का एक स्रोत नहीं बल्कि किसी भी शहर के लिए मां की मानिंद है। बरसों से यही आस्था सांस्कृतिक धरोहर का जीवंत प्रवाह रही है। दुनिया भर में जिन शहरों से कोई नदी गुजरी उसने एक सभ्यता की नींव रखी। लेकिन यही सभ्य समाज जब अपनी जड़ों को भूल जाता है तो उसका हश्र खान नदी की दुर्दशा के रूप में टीस देता है। कभी अपनी लहरों से शहर के दोनों किनारों को धोने वाली इस नदी के जिस्म पर आज दिख रहे फफोले किन्हीं आतताइयों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों, अपराधियों या किसी संगठित गिरोह की साजिश का नतीजा नहीं हैं। ये पुण्य सलिला हमारे ही हाथों मृतप्राय की गई है। आज अगर यह एक नाले के रूप में तबदील हुई है तो यह हमारी ही संवेदना मृत होने, हमारे ही संस्कार सुप्त होने और हमारे ही चारित्रिक पतन का प्रमाण है। फिर भी इस नदी को यकीन है कि अपनी मां की कोख में कीचड़ देखकर उसके कुछ बच्चों की आंखों में आंसू तो आते होंगे.... यकीन न हो तो आप इसके तट पर बैठें, आंखें बंद करें... बाहें फैलाकर मां कहती है ... मेरे बच्चो! तुम अपने बच्चों को बताना कि ये फफोले मां को बहुत दर्द देते हैं...।  

मैं खुद को अब नदी कहने से भी डरने लगी हूं...कैसे कहूं...मेरी रगों में अब कलकल बहता नीर नहीं...काला पानी है...मुझे नाला कहा जाता है...या तो मैं मर चुकी हूं या मृत शैय्या पर हूं...मैं जीना चाहती हूं...फिर से मेरे किनारों पर हंसते-खिलखिलाते चेहरे देखना चाहती हूं...मेरी ख्वाहिश है कि इस शहर की जीवन रेखा बनूं...मैं चाहती हूं कि शहर के पाताल तक को तर कर दूं जिससे कि शहर के ट्यूबवेल और कुएं पानी से लबालब रहें... मेरी मंशा है कि मेरे किनारों पर पेड़ों की कतार रहे। इन पर परिंदों का बसेरा हो...और न जाने क्या क्या चाहती हूं मैं...।
ऐसा नहीं है कि मैंने ये ख्वाब यूं ही बुन लिए। मैं इस शहर में 350 साल से हूं। शहर से 11 किमी दूर उमरिया गांव की उसी पहाड़ी से निकली हूं जिससे पवित्र बहन क्षिप्रा का जन्म हुआ। हम दो जिस्म एक जान हैं। एक जिस्म मेरा ही है जिसे खान कहते हैं और दूसरी सरस्वती। हम दोनों अलग-अलग रास्तों, तालाबों, नहरों,पुलों से होकर शहर के ह्दय कृष्णपुरा छतरी पर मिलती हैं। वहां से एक नाम हो जाता है, खान नदी। वैसे मेरा मूल नाम कान्ह था जो कृष्ण से कृष की कान्ह से खान बन गया।
हमारी ताकत को होलकर राजाओं ने पहचाना था, इसीलिए चालीस से ज्यादा बांध बनाकर हमारे पानी को बांधा था। शुरुआत दक्षिण मेंं मौजूद बिजलपुर और निहालपुर मुंडी गांवों से की थी। दोनों जगह तालाब बने हुए हैं। इन्हें भरने के लिए पूरा बंदोबस्त है। मुंडी गांव से बिजलपुर के पीछे हैदर कॉलोनी में काले पत्थरों से बंधा बांध कहानी कहता है। बांध के पास ही दूसरा ढांचा बना दिया गया और दिशा बदलने की कोशिश की गई है ताकि जमीन बच जाए और इस पर कॉलोनी काट दी जाए। ऐसा ही हर जगह हुआ। कहीं दिशा बदली तो कहीं किनारे पर रिटेनिंग वॉल बना दी गई। बिजलपुर में ही देखो, गुलकंद फैक्टरी के पीछे अर्जुन नगर में तो अब भी निर्माण चल रहा है। सोचती हूं, क्या मेरे किनारों से १०० मीटर दूर तक निर्माण नहीं करने का जो कानून बना था, वह तोडऩे के लिए ही था। दस मीटर जगह भी खाली नहीं मिलती।
ऐसा भी नहीं है कि मेरी रगों में काला पानी किसी ने एक दिन में डाल दिया हो। यह जहर धीरे-धीरे घुला है और उन लोगों के सामने हुआ जिन्हें मेरी सांसों की परवाह करना थी। परवाह करने वाले बस वादे करते रहे कि अब हम इसे जिंदा करेंगे। बात वर्ष 1985 की है। महेश जोशी आवास एवं पर्यावरण मंत्री थे। उन्होंने कुछ लाख का खान प्रोजेक्ट बनाया था। पैसा खर्च हुआ लेकिन मुझे जिंदगी नहीं मिली। मंत्री-मुख्यमंत्री बदलते गए और वादे होते ही रहे। सुंदरलाल पटवा, दिग्विजय सिंह, बाबूलाल गौर, शिवराज सिंह चौहान और पता नहीं कौन-कौन आए और बातों के पुल बांधकर चले गए।
पूछती हूं, क्या वास्तव में मुझमें सांस फूंकना आसमान से तारे तोडऩे जितना असंभव है? क्या जिम्मेदारों को देश के अन्य हिस्सों में मेरी तमाम बहनों के उदाहरण नहीं पता। थोड़ी शिद्दत, थोड़ी कोशिश से नदियां जिंदा की गई हैं। योजनाओं की छोडिय़े, बस आपकी भावना, आपकी इच्छाशक्ति मुझमें प्राण फूंक सकती है। मैं वचन देती हूं- जिंदा हो गई तो इंदौर की तस्वीर बदल दूंगी। मैं नर्मदा और यमुना के बेसिन पर पली-बढ़ी हूं। नदियों से आने वाली समृद्धि देने की क्षमता रखती हूं ... बस ठान लो, बाकी मुझ पर ही छोड़ देना... जानते हैं मैं आपकी ही... अपनी खान हूं...।

नदियां ही नदियां 
वैसे तो शहर की पहचान एक ही नदी से है, नाम है खान, लेकिन नदियों की यहां कमी नहीं है। सेप्ट यूनिवर्सिटी की छात्रा आर्शिया कुरैशी ने जुलाई २००७ में शोध कार्य पेश किया था। इसके मुताबिक इंदौर में दस नदियां हैं, जो सब मिलकर खान बन जाती है और बाद में क्षिप्रा में मिल जाती है।

बड़ा गुनाह कर रहे हम
खान नदी में बहने वाली गंदगी आगे चलकर क्षिप्रा में मिलती है। क्षिप्रा उज्जैन जाती है और वहां के लोगों की प्यास बुझाती है। कितनी अजीब बात है कि हमारी लापरवाही से उनकी सेहत खतरे में है। इसे रोका जाना बेहद जरूरी है। और यह बात, इंदौर के मास्टर प्लान में भी दर्ज की गई है।

दो बड़ी योजनाओं से खड़े हो रहे दो संदेह
पहला संदेह : रिवर साइड कॉरिडोर  
जेएनएनयूआरएम के तहत खान नदी के किनारों पर सड़क बनाने के इस प्रोजेक्ट पर २१० करोड़ रुपए खर्च होना है लेकिन उसमें भी केवल 14.5 किमी हिस्से पर ही काम होगा। दरअसल इस हिस्से को पर्यटन स्थल बनाने की कोशिश है। शहर से होकर गुजरने वाले शेष 10.5 किमी के बारे में कोई योजना तैयार नहीं है। 
पहला रास्ता : कॉरिडोर के साथ नदी
रिवर साइड कॉरिडोर के साथ ही खान नदी पुनर्जीवन प्रोजेक्ट को जोड़ दिया जाए और इसके लिए भी जेएनएनयूआरएम से फंड लिया जाए। दोनों प्रोजेक्ट साथ-साथ चलाकर ही नदी के स्वरूप को बचाना और उसे जिंदा करना संभव होगा। अन्यथा, रिवर साइड कॉरिडोर नदी पर सरकारी अतिक्रमण बनकर रह जाएगा।
दूसरा संदेह : सीवरेज प्रोजेक्ट 
जेएनएनयूआरएम के तहत ही शहर की गंदगी के नियोजित तरीके से निपटान के लिए जमीन की गहराई में ४४२ करोड़ रुपए से सीवरेज का ढांचा खड़ा किया जा रहा है। इस ढांचे में कॉलोनियों के सीवरेज को जोड़ा जाना है, लेकिन यह तय नहीं है कि इस प्रोजेक्ट के खत्म होने पर खान नदी में गंदगी नहीं डलेगी।
दूसरा रास्ता : ट्रीटमेंट प्लांट -वेटलैंड
इस प्रोजेक्ट को नदी के साथ सीधे जोड़ा जाए ताकि किसी भी स्थिति में नदी में एक भी लीटर गंदा पानी न जा सके। नदी के किनारों पर पाइप डालने के साथ ही थोड़ी थोड़ी दूरी पर ट्रीटमेंट प्लांट बनाए जाएं। साथ ही, गंदे पानी को साफ करने के लिए वेटलैंड को अपनाया जाए।

फंड की कोई कमी नहीं

जल प्रबंधन के तहत जेएनएनयूआरएम के द्वितीय चरण में केंद्र बड़ी राशि देने की तैयारी में है। इसके लिए 200 से 500 करोड़ रुपए तक लिए जा सकते हैं। इंदौर में तो इस काम के लिए दानदाताओं की कमी भी नहीं आएगी। कई सामाजिक संगठन भी एकजुट होकर काम करने को राजी है।

पांच चरण से कायापलट


पहाड़ों की हरियाली
बायपास के पीछे की पहाडिय़ों पर एक जमाने में शिकार हुआ करते थे, अब ये पहाडिय़ां नंगी हो गई हैं। पेड़ नहीं है। इन पर हरियाली करना आसान है। वन विभाग आगे आए, पौधारोपण करे और पानी आने के तंत्र को विकसित करे। साथ ही, पहाड़ों पर होने वाले खनन को रोके, जो अवैध निर्माण किये गये हैं, उन्हें ध्वस्त किया जाए।
तालाबों का चैनल
रालामंडल, लिंबोदी, निहालपुर मुंडी, बिजलपुर और बिलावली के तालाबों के नेटवर्क को मजबूती दी जाए। इन तालाबों में पहुंचने वाले पानी के मार्ग में कई रुकावटें खड़ी हो गई हैं। इन्हें ध्वस्त करके तालाब भरे  जाएं और पानी आगे बढ़ाया जाए। यह काम जिला प्रशासन को करना होगा। इन पांच तालाबों से पिपलियापाला  तालाब लबालब हो जाएगा और पानी की कमी नहीं आएगी।
अवैध निर्माण ध्वस्त
आबादी के साथ ही अतिक्रमण भी हो गए हैं। किनारों पर किए गए निर्माणों को चिह्नित करके इन्हें ध्वस्त करने की कार्रवाई हो। जहां किनारे खाली हैं वहां नए निर्माण हरगिज न हों। यह दायित्व नगर निगम का है और पूरा शहर उसके साथ खड़ा होने को तैयार है। सबसे पहले उन उद्योगों को हटाया जाए, जो किनारे पर लगे हैं और खतरनाक अपशिष्ट नदी में बहाते हैं।
गंदगी समेटने के पाइप
न दी की लंबाई करीब ५५ किमी है। शहर के मध्य में जहां बहती है, वहां गंदगी सीधे इसमें छोड़ी जा रही है। इस गंदगी या ड्रेनेज से निपटने का सबसे आसान रास्ता नदी के किनारे-किनारे बड़े आकाार के पाइप डाले जाएं और इनमें गंदगी के आउटलेट जोड़ दिए जाएं। यह कम खर्चीला और आसान रास्ता है। इसमें शहर में संचालित सीवरेज प्रोजेक्ट से भी मदद मिल सकती है।
किनारों पर पानी के भंडार 
जहां पेड़ हैं, वहां पानी है। प्रकृति के इस अंतिम सत्य और पारिस्थिकी तंत्र को समझते हुए किनारों पर घास, पौधे और पेड़ों का ढांचा विकसित किया जाए। यह नेटवर्क बरसात के पानी को अपनी जड़ों में समेटेगा और गर्मी में इसे छोड़ेगा। इससे नदी में पूरे साल बहाव बना रहेगा। इस काम का जिम्मा वन विभाग को सौंपा जा सकता है।
लंदन की टेम्स नदी को जिंदा किया जा सकता है तो इंदौर की खान को क्यों नहीं? अफसर, नेता और प्रबुद्ध नागरिक एकजुट होकर वैचारिक बदलाव लाएं तो काम शुरू हो जाएगा। इस अनमोल प्राकृतिक धरोहर को बचाने में आर्थिक संसाधनों की कोई कमी नहीं है। 
श्रेया भार्गव, पर्यावरण कार्यकर्ता

होलक र काल में इंदौर में दस नदियां थीं और इनके पानी को सहेजने के लिए बांध खड़े किए गए थे । बांधों के ढांचे आज भी मौजूद हैं। गड़बड़ी यह हुई कि हम अपनी पर्यावरण जरूरतों को भूलते गए और नदी खोती चली गई। पुरानी व्यवस्था को आज भी संभाल लें तो तस्वीर बदल जाएगी।
किशोर कोडवानी, सामाजिक कार्यकर्ता

खान नदी को पुनर्जीवित करने के लिए अब तक जो भी कोशिशें की गई वे अधूरी कोशिशें थीं। इस नदी को जिंदा करने के लिए सभी विभागों को जोड़कर एक नोडल एजेंसी बनाना होगी। इसमें सिविल सोसाइटी की भी बहुत बड़ी भूमिका रखना होगी। 
नरेन्द्र सुराणा , सचिव, सीईपीआरडी

बड़ी इच्छा है कि यह नदी पूरी तरह जिंदा हो जाए। नहर भंडारा के हिस्से से हमने शुरुआत की थी, लेकिन अभी उसमें बहुत काम बाकी है। हम वित्तीय संसाधन जुटाने की कोशिश में हैं ताकि नदी को समग्र तरीके से सुधारा जा सके। अतिक्रमण हटाने का काम हर साल किया जाता है, इसे भी व्यापकता देना होगी। सबको मिलकर ही कुछ करना होगा। हम हर संभावना पर काम करने को राजी हैं।
कृष्णमुरारी मोघे, महापौर

खान नदी को पुनर्जीवित करने की हम पूरी कोशिश कर रहे हैं। अभी रिवर साइड कॉरिडोर और सीवरेज प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है। इन दोनों से नदी को फायदा होगा लेकिन यह कह पाना संभव नहीं है कि इनसे नदी जिंदा हो ही जाएगी। नदी के लिए नई योजना बनाई जा सकती है। इसके लिए शहर के प्रबुद्ध नागरिकों से भी चर्चा करके व्यापक योजना तैयार करेंगे।
प्रभात पाराशर, संभागायुक्त

खान नदी को फिर से शुरू करने के लिए व्यापक योजना बनाने की आवश्यकता है। वैसे, अभी रिवर साइड कॉरिडोर पर काम चल रहा है। इसके साथ ही पूरी योजना को लिया जा सकता है। राज्य सरकार नदी पुनर्जीवन योजना पर काम कर रही है और इसके तहत क्षिप्रा नदी का प्रोजेक्ट लिया जा रहा है। इस योजना के साथ ही खान नदी को जोडऩे की संभावनाएं भी तलाशी जा सकती है।  
राघवेंद्र सिंह, कलेक्टर

यह वास्तव में उम्मीदों की खान है। अब तक जो भी प्रयोग हुए हैं, वे अधूरे थे और इनका उद्देश्य स्पष्ट नहीं था। नए सिरे से योजना बनाकर नदी सुधारने की कोशिश करेंगे। इसमें नगर निगम व जिला प्रशासन की अहम भूमिका है क्योंकि नदी के किनारों के अतिक्रमण व उद्योगों को सख्ती से हटाना होगा। इसके बाद गाद निकलेगी और नदी बहने लगेगी। यह कदम शहर के लिए बेहद सुकूनदेह होगा।
सुमित्रा महाजन, सांसद


कोशिशें कमजोर थी इसलिए नहीं मिला अंजाम 
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वर्ष १९८५ से २०११ तक अलग-अलग नेताओं और अफसरों के कार्यकाल में खान नदी को पुनर्जीवित करने के लिए कई योजनाएं बनी, रुपए खर्च हुए, लेकिेन नतीजा कुछ नहीं निकला। एक तय सरकारी नियम के तहत हर वर्ष नदी क्षेत्र की सफाई का विशेष अभियान भी चलाया जाता है। यह अभियान भी किसी अंजाम तक नहीं पहुंच पाता है। दरअसल, नदी को जिंदा करने की जितनी भी कोशिशें हुईं, वे बेहद कमजोर, दिखावटी व अधूरी थीं, इसलिए अंजाम तक नहीं पहुंची।  
२७ साल में चले  चार कदम
१९८५
योजना : तत्कालीन आवास एवं पर्यावरण मंत्री महेश जोशी ने बाढ़ नियंत्रण के नाम पर केंद्र सरकार से योजना मांगी और वहां से मंंजूरी भी मिल गई। सरवटे बस स्टैंड के पास काम की शुरुआत होना थी।
ऐसे हुई फेल : केंद्र सरकार को शिकायत हो गई कि खान नदी नहीं नाला है और इससे बाढ़ नहीं आती है। इस पर केंद्र ने योजना छीन ली।
१९९२
योजना : तत्कालीन संभागायुक्त विजयसिंह, निगम प्रशासक एस.एस. उप्पल, इंजीनियर सी.एम. डगांवकर आदि ने ओडीए प्रोजेक्ट के तहत नदी में नई पाइप लाइन बिछाने की योजना बनाई, ताकि गंदा पानी उसके जरिए बहाया जा सके। किनारे पर नगर निगम ने शिवाजी मार्केट के पीछे उद्यान, बैठक व्यवस्था भी बनाई।
ऐसे हुई फेल : करीब सवा दो करोड़ रुपए खर्च हो गए, लेकिन नतीजा नहीं निकला क्योंकि योजना समग्रता के साथ तैयार नहीं की गई थी। साथ ही पानी के बहाव को समझे बगैर काम शुरू कर दिया गया था।
२००६
योजना : तत्कालीन मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने चिडिय़ाघर के पास संवादनगर से छावनी पुल के बीच 1.८० करोड़ की योजना बनाकर सौंदर्यीकरण और नाव चलाने की योजना घोषित की। इसी दौर में, तत्कालीन विधायक लक्ष्मणसिंह गौड़ और पार्षद लोकेंद्रसिंह राठौर ने नहर भंडारा से विष्णपुरी, ट्रांसपोर्टनगर के हिस्से में नाले की सफाई का जिम्मा लिया।
ऐसे हुई फेल :  विजयवर्गीय की योजना 20 लाख रुपए खर्च करने के बाद बंद हो गई, क्योंकि यह तत्कालीन महापौर डॉ. उमा शशि शर्मा को हैरान परेशान करने का कदम भर था। इसी तरह गौड़-राठौर ने भी बाद में काम बंद कर दिया।
२०११
योजना :  महापौर कृष्णमुरारी मोघे और आवास पर्यावरण मंत्री जयंत मलैया ने नहर भंडारा में नाव चलाने के लिए फिर से काम का भूमिपूजन किया। नदी में आ रही सीवरेज लाइन को रोकने की योजना थी। इसके लिए दो महीने तक गाद निकाली गई।  
ऐसे हुई फेल :  बारिश के पहले काम शुरू किया गया, इसलिए जो गंदगी निकाली गई, वह कुछ दिन बाद ही बहाव के साथ वापस जमा हो गई। हालात जस के तस हैं।
दिल्ली
यमुना को साफ करने के लिए दिल्ली की सरकार संंजीदा है और बड़े प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है।
पाली

जोधपुर के पास स्थित इस जिले की दो नदियोंं बंडी और लूनी के प्रदूषण को दूर करने के लिए नागरिकों ने  सराहनीय कदम उठाए हैं।
हरिद्वार

 अवैध खनन के कारण गंगा नदी को होने वाले नुकसान के विरोध में स्वामी निगमानंद सरस्वती ने करीब चार महीने तक आमरण अनशन किया और मौत को गले लगा लिया।  
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हमारी खान का रास्ता
- उमरिया गांव के पास क्षिप्रा पहाड़ी से निकलकर लिंबोदी, तीन इमली, आजाद नगर, चिडिय़ाघर, छावनी अनाज मंडी, दौलतगंज, प्रेमसुख टॉकिज, रिवरसाइड रोड होते हुए कृष्णपुरा छत्री पहुंचने वाली नदी का नाम असल में कान्ह है, इसे ही खान कहा जाने लगा। 
- निहालपुर मुंडी तालाब से बिलावली-पिपलिया पाला होकर नहर भंडारा में जाने वाली नदी को सरस्वती कहते हैं। एक नदी बिजलपुर तालाब से गमले वाली पुलिया होते हुए तेजपुर गड़बडी़ होकर चोइथराम मंडी के पीछे सरस्वती नदी से मिलती है।
- चोइथराम मंडी से दोनों लालबाग, कर्बला, जयराम पुरा, छत्रीबाग, बंबई बाजार, मछली बाजार, पंढरीनाथ, मोती तबेला, चंद्रभागा, प्रेमसुख से होकर कृष्णपुरा छत्री पर खान से मिलती हैं।  कृष्णपुरा से रामबाग, डीआरपी लाइन, भंडारी मिल, कुलकर्णी भट्टा, भागीरथपुरा पुर होते हुए कबीटखेड़ी प्लांट पर पहुंचती है। आगे चलकर क्षिप्रा में मिलती है।

और भी बहाव 
- एक नदी सुख निवास से शुरू होकर रणजीत हनुमान,  आदर्श इंद्रानगर में ईंट भट्टों के पास मिलती है। एक अन्य नदी सिरपुर के आगे से कालानीनगर, हुकुमचंद कालोनी, पंचकुईया के आगे मिलती है।
- सिरपुर के दूसरे हिस्से से चलने वाली नदी चंदननगर, रामचंद्रनगर, पंचकुईया पर जाकर ऊपर वाली नदी से मिलती है।  स्कीम ७१ से एक और नदी गोविंदनगर, पेनजॉन कालोनी, बाणेश्वरीकुंड, सांवेर नाका, मरीमाता चौराहे के पहले संगम में मिल जाती है।
- गांधीनगर इंडस्ट्रियल एरिया, एमआर-१० से कबीटखेड़ी ट्रीटमेंट प्लांट तक बड़ा नाला है, जो कभी नदी की शक्ल में बहता था। वहीं,  पीपल्याहाना से शुरू होकर नवरत्नबाग, बड़ी ग्वालटोली, इंद्रनगर, पलासिया, देवनगर, पंचमफेल, मालवामिल, जनता क्वार्टर, सर्वहारा नगर, जीवन की फेल, कुलकर्णी भट्टा, परदेशीपुरा, भागीरथपुरा पुल पर जाने वाला नाला पीपल्याहाना की नदी कहलाता था। 

नदी में बहा रहे बेहिसाब गंदगी
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक २३९ एमएलडी गंदगी हर दिन छोड़ता है शहर
निगम ने ८० एमएलडी गंदगी के हिसाब से कबीट खेड़ी का ट्रीटमेंट प्लांट बना रखा है
जो १५९ एमएलडी का अंतर आ रहा है, वह गंदगी बगैर ट्रीटमेंट के क्षिप्रा नदी में जा रही है
सड़कों का नेटवर्क १७१० किमी है, जबकि ड्रेनेज ६०० किमी ही।  १११० किमी का जो फर्क है, उसका क्या?

खान नदी की सबसे बड़ी समस्या इमसें आ रही गंदगी यानी सीवरेज है। इस सीवरेज को सही तरह से निपटाया जाना चाहिए ताकि नदी साफ रहे। ताज्जुब तो यह है कि इंदौर को पता ही नहीं है, वह अभी कितनी गंदगी खान नदी में बहा रहा है ।
निगम ने कबीट खेड़ी में एक ट्रीटमेंट प्लांट बनाया है, उसकी क्षमता ८० एमएलडी पानी साफ करने की है। माना जाता है कि शहर में इतनी ही गंदगी निकलती है, जबकि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़े बताते हैं कि शहर में हर दिन २३९ एमएलडी गंदा पानी छोड़ा जाता है। दोनों के बीच का अंतर हो गया १५९ एमएलडी । यह कहां जाता है और कैसे साफ होता है, सरकार नहीं जानती?
एक तथ्य यह भी है कि शहर में सड़कों का नेटवर्क १७१० किमी का है जबकि ड्रेनेज का ६०० किमी ही।  जानकार कहते हैं कि सड़कों की लंबाई के बराबर ही ड्रेनेज लाइन होना चाहिए, क्योंकि शहर में जहां सड़क होती है, वहां बसाहट रहती ही है। यहां भी १११० किमी का अंतर आ गया है। इस अंतर को खत्म करने के लिए क्या किया जा रहा है, इसकी जानकारी भी योजनाकारों के पास नहीं है।
अब जो ड्रेनेज मौजूद है, उसकी बात करें। इसका ९० प्रतिशत नेटवर्क खुला हुआ है। पूरे नेटवर्क में शहर की ५५ प्रतिशत गंदगी बहती है। शेष गंदगी सेप्टिक टैंकों के जरिए नालों में जुड़ जाती है। सेप्टिक टैंकों से १४६४ पब्लिक टॉयलेट जुड़े हुए हैं। इनकी जो गंदगी नालों में जा रही है, वह अंत में नदी में ही जाती है। खुले ड्रेनेज के कारण शहर में बीमारियां फैलती हैं और दुर्घटनाएं भी होती हैं। इसे बंद करने के लिए अब तक कभी कोई समग्र प्रयास नहीं किए गए हैं।
इन सभी बातों को जोड़कर देखने  की जरूरत है क्योंकि सीवरेज और नदी दोनों आपस में मिले हुए हैं। इन्हें जुदा करके ही नदी को नदी के अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है। इसके लिए नागरिकों के साथ ही नेता-अफसरों को भी अपनी सोच में मोटा बदलाव लाना होगा। यह भी मानना होगा कि यह काम असंभव तो बिल्कुल भी नहीं है।


नोडल एजेंसी जरूरी
इंदौर। तमाम योजनाओं की गहराई में जाएं तो हम पाते हैं कि योजना को समग्र रूप दिया ही नहीं गया। छोटे-छोटे हिस्सों में ढांचा तैयार किया और छोड़ दिया। ऐसा करके कभी सफलता हासिल हो ही नहीं सकती। इन योजनाओं के बेनतीजा खत्म होने के बाद इस बात की जरूरत महसूस की जा रही है कि नदी को जिंदा करने के लिए एक नोडल एजेंसी बनाई जाए जो समग्र रूप से इस मुद्दे को देखे और सोचे। साथ ही सभी विभागों, अफसरों और नेताओं के बीच तालमेल बनाकर नदी को नदी के अंजाम तक पहुंचा सके। इस काम में नागरिकों को  भी जोड़ा जाए।
देश दुनिया में नदियां जिंदा करने के लिए तरह-तरह की कोशिशें हो रही हैं। कहीं लोग सड़कों पर आ रहे हैं तो कहीं आमरण अनशन चल रहे हैं। वहां लोगों को लग रहा है कि उनकी पर्यावरण जरूरतें नदी से पूरी हो सकती हैं। नदी से ही उनके शहर की आबो-हवा के साथ ही भूमिगत पानी को सहेजा जा सकता है। जानकार कहते हैं, नदी को खत्म करने की ताकतें पूरी दुनिया में काम कर रही हैं। ये ताकतें सोचती हैं कि नदियों को पाट दिया जाए और उन पर शापिंग मॉल, सड़क या पार्किंग बनाकर बेच दिया जाए। यह बाजार की सोच की है। इन सोचों को चतुराई से आगे बढ़ाया जाता है।
इंदौर के मास्टर प्लान में भी इस तरह की कोशिश की गई है। इसमें हथियार डालने के अंदाज में लिख दिया गया कि खान व सरस्वती नदियां वर्षा जल के साथ नगर के दक्षिण-पूर्व और दक्षिण-पश्चिम दिशा में १० से १५ किमी दूरी से वर्षा जल अपने साथ बहा लाती है। इसलिए औसत खर्च में भूमिगत जल और मल निकासी के लिए पाइप लाइन बिछाना संभव नहीं है। इस तरह की अड़चनें हर नदी के साथ खड़ी की जाती हैं। फिर भी जहां नागरिक जागरूक हैं, वहां बाधाओं को पार करके नदियों को जिंदा किया गया है।
तय की जाए सबकी जवाबदेही

आईडीए : योजना बनाकर मूर्त रूप दें
आईडीए को चाहिए कि वह खान नदी को पुनर्जीवित करने की समग्र योजना बनाए और उसे मूर्त रूप देने के लिए कदम उठाए। दरअसल, आईडीए ही आर्थिक और तकनीकी रूप से सक्षम ऐसी सरकारी ईकाई है जो यह काम कर सकती है। आईडीए के ही विशेषज्ञ अफसरों ने मिलकर सिटी डेवलपमेंट प्लान तैयार किया था और इसमें नदी को फिर से नदी बनाने का जिक्र भी है। अच्छी बात यह है कि आईडीए में फिलहाल अफसर काबिज हैं।
निगम : अतिक्रमण हटाए, सीवरेज जोड़े
आईडीए जो योजना बनाए, उसे अमल में लाने में अहम भूमिका निगम की रहेगी। किनारों पर हुए अतिक्रमण हटाने के लिए निगम, प्रशासन के साथ मिल कर सख्त कार्रवाई करे। इसके साथ ही नए अतिक्रमणों को न होने का बंदोबस्त करे। कानूनन नदी के दोनों छोर पर सौ-सौ मीटर तक निर्माण नहीं होना चाहिए। निगम को उन सीवरेज लाइनों को जोड़कर गंदगी शहर से बाहर फेंकने का काम भी करना होगा, जो अभी नदी में मिलती है।
पीसीबी : कचरा बहाने वालों को काबू करे
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (पीसीबी) अपने दायित्व को भूल चुका है। नदी में औद्योगिक कचरा भी आ रहा है। यह पर्यावरण और भूमिगत पानी के लिए बेहद खतरनाक है। उद्योगों से निकलने वाले कचरे के निपटान के लिए पीथमपुर में प्लांट लगाया गया है। पीसीबी उद्योगों पर सख्ती बरते तो सारा कचरा वहां जाने लगेगा और गंदगी से नदी को निजात मिलेगी। पीसीबी को जल प्रदूषण फैलाने वाले दूसरे तत्वों पर भी कानूनी कार्रवाई करना चाहिए।
पत्रिका ,   8 फरवरी 2012 , बुधवार

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